नारी पर कविता

है निरा निरादर नारी का,
जहां माता का सम्मान नहीं।
रुष्ट रूह रमती हरदम,
बसते वहां भगवान नहीं।।
नौ महीने तक दुख सुख पा के,
कोख में जिसको ढोया था।
सुला के सूखा, गीले सोई,
मल मूत्र हाथों धोया था।।
क्यों भूल गया सुत कर्म भला,
जो मां का था एहसान नहीं…
बड़ा फर्ज निभाया है मां ने,
कुछ फर्ज तुम्हारा भी होगा।
जो कर्ज दूध का चढ़ा पड़ा,
वही कर्ज उतारा भी होगा।।
जब गई गरज और मिटा मर्ज,
तो बन जाते अनजान वही…
मां यज्ञ हवन की समिधा सी,
शनै: शनै: सब वार गई।
जीत की देहरी चढ़कर वो,
अपनों से ही हार गई।।
वृद्धाश्रम या घर का कोना,
रह गई है पहचान यही…
काश याद बचपन लौट आए,
वही मां का दर्श दिखाई दे।
सीने में दर्द दफन बेशक,
चेहरे का हर्ष दिखाई दे।।
बस मन से इज्जत मांगे मां,
चाहती कोई गुणगान नहीं…
शिवराज चौहान* नान्धा, रेवाड़ी (हरियाणा)