भीड़ अब आगे बढ़ी, स्वार्थ में खूब अड़ी
तंत्र हो गया घायल, आज यह कैसी घड़ी।

कौन चोर कौन चौकीदार, पता नहीं चले यहाँ
अपनों के बीच खड़ी दुनिया, लगती कुटिल है यहाँ
भोले- भाले भूखे- प्यासे, बेघर हो घूमें जहाँ
आँखों में आँसू हैं उनके, हाय अब जाएँ कहाँ

नीति भी सिर पर चढ़ी, हाथ में जादू- छड़ी
कहीं बज रही पायल, कहीं रोए हथकड़ी।
भीड़ अब आगे बढ़ी……..

सत्ता के लिए बेचैन जो, जेब हों भरते जहाँ
भक्षक हैं बने- ठने रक्षक, किसकी कहें हम यहाँ
माफिया भी साथ हों जिसके,जीत हो उसकी वहाँ
अपनों से हार जो गए हैं, आँसू पिएंगे यहाँ

भावना इतनी पढ़ी, आस्था पीछे पड़ी
जो है उसका कायल, उससे ही आँख लड़ी।
भीड़ अब आगे बढ़ी…….

आसाराम बापू की तरह, गुरू मिलते हों जहाँ
अपनी आस्तीन में ही जब, साँप पलते हों जहाँ
कैसे कोई सीधा- सादा, इनसे बचेगा यहाँ
एक बार चँगुल में फँसकर, रोता रहेगा यहाँ

सजी- सँवरी है मढ़ी, जुड़ी सत्ता से कड़ी
संयासी भी रॉयल, छड़ी रत्नों से जड़ी।
भीड़ अब आगे बढ़ी……..

रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट
‘कुमुद -निवास’
बरेली (उत्तर प्रदेश)

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