अनेकों भाव हिय मेरे

अनेकों भाव हिय मेरे

अनेकों भाव मन मेरे, सदा से ही मचलते हैं।
उठाता हूँ कलम जब भी, तभी ये गीत ढलते हैं।
पिरोये भाव कर गुम्फित, बनी है गीत की माला
कई अहसास सुख-दुख के, करीने से सजा डाला।
समेटे बिंब खुशियों के, सुरों में यत्न कर ढाला।
सुहाने भाव अंतस में, मचलते अरु पनपते हैं।1
अनेकों भाव हिय मेरे…


जगायें चेतना नूतन, हरें हर पीर वे मन की
भगायें वेदना सारी, अधर पे है खुशी  दिल की।
करायें ये सदा प्रेरित, उभारें रोशनी हिय की।
उजालों के तभी वो गीत, बनकर ही निकलते हैं।2
अनेकों भाव हिय मेरे…


भगा नैराश्य जीवन से, दिखाते राह आशा की।
नये उद्गार से सज कर, खबर लेते निराशा की।
नये पथ को करें इंगित, यही है शक्ति भाषा की।
भरा उत्साह गीतों में, कि इनसे सब सँभलते हैं।3
अनेकों भाव हिय मेरे…

उठाई जो कलम हमने  वही शब्दों में ढलते हैं।।
जगाते हैं नई आशा, नया उत्साह भरते हैं
दिलों पर राज करते हैं, नवल संतोष भरते हैं।
हमारे गीत जीवन की, व्यथा के स्वर बदलते हैं।
अनेकों भाव हिय मेरे…


प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 27 जनवरी 2018

Leave A Reply

Your email address will not be published.