Author: कविता बहार

  • धर्मपत्नी पर कविता

    धर्मपत्नी पर कविता

    karwa chouth


    ( विधाता छंद, २८ मात्रिक )

    हमारे देश में साथी,
    सदा रिश्ते मचलते है।
    सहे रिश्ते कभी जाते,
    कभी रिश्ते छलकते हैं।

    बहुत मजबूत ये रिश्ते,
    मगर मजबूर भी देखे।
    कभी मिल जान देते थे,
    गमों से चूर भी देखे।

    करें सम्मान नारी का,
    करो लोगों न अय्यारी।
    ठगी जाती हमेशा से,
    वहीं संसार भर नारी।

    हमारी धर्म पत्नी को,
    कहीं गृहिणी जताते हैं।
    ठगी नारी से करने को,
    बराबर हक बताते हैं।

    यहाँ तल्लाक होते है,
    विवाहित भिन्न हो जाते।
    नहीं हो हक,नारी का,
    अदालत फिर चले जाते।

    हकों की बात ये छोड़ो,
    निरे अपमान सहती है।
    हमेशा धर्म पत्नी ही,
    हवा के साथ बहती है।

    ठगाई को,मधुर तम यह,
    यहाँ पर नाम है पाला।
    जुबां मीठी जता पत्नी,
    बड़ा शुभ नाम दे डाला।

    नहीं हो धर्म से नाता,
    वही धर्मी यहाँ होते।
    गमों के बीज की खेती,
    दिलों के बीच हैें बोते।

    नहीं मानू कभी मैं यों,
    पुरानी बात उपमा को।
    हमारे मन पुजारिन है,
    सँभालूँ शान सुषमा को।

    सभी चाहे यही हम तो,
    हमारी शान नारी हो।
    तुम्हारी धर्मपत्नी के,
    तुम्ही मन के पुजारी हो।
    , ______
    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”

  • सुख-दुख की बातें बेमानी

    सुख-दुख की बातें बेमानी

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    ( १६ मात्रिक )

    मैने तो हर पीड़ा झेली,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।

    दुख ही मेरा सच्चा साथी,
    श्वाँस श्वाँस मे रहे संगाती।
    मै तो केवल दुख ही जानूं,
    प्रीत रीत मैने कब जानी,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।

    साथी सुख केवल छलना है,
    मुझे निरंतर पथ चलना है।
    बाधाओं से कब रुक पाया,
    जब जब मैने मन में ठानी,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।

    अवरोधक है सखा हमारे,
    संकट बंधु पड़ोसी सारे।
    इनकी आवभगत कर देखे,
    कृत्य सुकृत्य हितैषी मानी,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।

    विपदाएँ ही अच्छी लगती,
    मेरा एकाकी पन हरती।
    स्वाँस रक्त दोनों ही मैने,
    देशधरा की सम्पद जानी,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।

    मन में सुख-दुख का जोड़ा है,
    दुख ज्यादा है सुख थोड़ा है।
    दुख में नई प्रेरणा मिलती,
    सुख की सोच मान नादानी,
    सुख-दुख की बातें बेमानी।
    __________
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा

  • अब तो मेरे गाँव में

    अब तो मेरे गाँव में

    अब तो मेरे गाँव में

    अब तो मेरे गाँव में
    गाँव पर हिंदी कविता


    . ( १६,१३ )
    अमन चैन खुशहाली बढ़ती ,
    अब तो मेरे गाँव में,
    हाय हलो गुडनाइट बोले,
    मोबाइल अब गाँव में।

    टेढ़ी ,बाँकी टूटी सड़कें
    धचके खाती कार में,
    नेता अफसर डाँक्टर आते,
    अब तो कभी कभार में।

    पण्चू दादा हुक्का खैंचे,
    चिलम चले चौपाल मे,
    गप्पेमारी ताश चौकड़ी,
    खाँप चले हर हाल में।

    रम्बू बकरी भेड़ चराता,
    घटते लुटते खेत में,
    मल्ला काका दांव लगाता
    कुश्ती दंगल रेत में।

    पनघट एकल पाइंट, बने
    नीर गया …पाताल़ मे,
    भाभी काकी पानी भरती,
    बहुएँ रहे मलाल… में।

    भोले भाले खेती करते
    रात ठिठुरे पाणत रात में।
    मजदूरों के टोल़े मे भी
    बात चले हर बात में।

    चोट वोट मे दारु पीते,
    लड़ते मनते गाँव में,
    दुख, सुख में सब साझी रहते,
    अब …भी मेरे गाँव में।

    नेताओं के बँगले कोठे
    अब तो मेरे गाँव में,
    रामसुखा की वही झोंपड़ी
    कुछ शीशम की छाँव में।

    कुछ पढ़कर नौकर बन जाते,
    अब तो मेरे गाँव मे,
    शहर में जाकर रचते बसते,
    मोह नही फिर गाँव में।

    अमरी दादी मंदिर जाती,
    नित तारो की छाँव में,
    भोपा बाबा झाड़ा देता ,
    हर बीमारी भाव मे।

    नित विकास का नारा सुनते
    टीवी या अखबार से,
    चमत्कार की आशा रखते,
    थकते कब सरकार से।

    फटे चीथड़े गुदड़ी ओढ़े,
    अब भी नौरँग लाल है,
    स्वाँस दमा से पीड़ित वे तो,
    असली धरती पाल है।

    धनिया अब भी गोबर पाथे,
    झुनिया रहती छान मे,
    होरी अब भी अगन मांगता,
    दें कैसे …गोदान में।

    बीमारी की दवा न होती,
    दारू मिलती गाँव में,
    फटी जूतियाँ चप्पल लटके,
    शीत घाम निज पाँव में।

    गाय बिचारी दोयम हो गई,
    . चली डेयरी चाव में,
    माँगे ढूँढे छाछ न मिलती ,
    , मिले न घी अब गाँव में।

    अमन चैन खुशहाली बढ़ती ,
    अब तो मेरे गाँव में,
    हाय हलो गुडनाइट बोले
    मोबाइल अब गाँव में।
    ————
    बाबू लाल शर्मा,बौहरा

  • उड़ जाए यह मन

    उड़ जाए यह मन

    पुस्तक

    (१६ मात्रिक)

    यह,मन पागल, पंछी जैसे,
    मुक्त गगन में उड़ता ऐसे।
    पल मे देश विदेशों विचरण,
    कभी रुष्ट,पल मे अभिनंदन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    पल में अवध,परिक्रम करता,
    सरयू जल मन गागर भरता।
    पल में चित्र कूट जा पहुँचे,
    अनुसुइया के आश्रम पावन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    पल शबरी के आश्रम जाए,
    बेर, गुठलियाँ मिलकर खाए।
    किष्किन्धा हनुमत से मिलता,
    कपिदल,संगत यह करे जतन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    पल में सागर तट पर जाकर,
    रामेश्वर के दर्शन पा कर।
    पल मे लंक,अशोक वाटिका,
    मिलन विभीषण,पहुँच सदन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    पल में रावण दल से लड़ता,
    राक्षसवृत्ति शमन मन करता।
    अगले पल में रघुवर माया,
    सियाराम के भजन समर्पण,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    पल मे हनुमत संगत जाता,
    संजीवन बूटी ले आता।
    मन यह पल मे रक्ष संहारे,
    पुष्पक बैठे अवध आगमन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    राजतिलक से राम राज्य के,
    सपने देखे कभी सुराज्य के।
    मन पागल या निशा बावरी,
    भटके मन घर सोया रह तन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    मै सोचूँ सपनों की बातें,
    मन की सुन्दर, काली रातें।
    सपने में तन सोया लेकिन,
    रामायण पढ़ करे मनन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।

    मेरा मन इस तन से अच्छा,
    प्रेम – प्रतीत रीत में सच्चा।
    प्रेमी,बैरी, कुटिल,पूज्यजन,
    मानव आनव को करे नमन,
    मुक्त गगन उड़ जाए यह मन।
    , ___________
    बाबू लाल शर्मा, बौहरा , विज्ञ

  • समय सतत चलता है साथी

    समय सतत चलता है साथी

    समय सतत चलता है साथी

    गीत(१६,१६)

    कठिन काल करनी कविताई!
    कविता संगत प्रीत मिताई!!

    समय सतत चलता है साथी,
    समय कहे मन त्याग ढ़िठाई।
    वक्त सगा नहीं रहा किसी का,
    वन वन भटके थे रघुराई।
    फुरसत के क्षण ढूँढ करें हम
    कविता संगत प्रीत मिताई।

    समय चक्र है ईष्ट सत्यता,
    वक्त सिकंदर,वक्त कल्पना।
    वक्त धार संग बहना साथी,
    मत देखे मन झूठा सपना।
    कठिन कर्म,पर्वत कर राई।
    कविता संगत प्रीत मिताई।

    समय देश सुविकास करेगा,
    मातृभाष सम्मान करें जब।
    हिन्द हितैषी सृजन साधना,
    मन में मीत हमारे हो तब।
    समय मिले मान तरुणाई,
    कविता संगत प्रीत मिताई।

    वक्त मिले तो सीख व्याकरण,
    भाषा सुन्दर हो जाएगी।
    छंद मुक्त अरु छंदबद्ध सब
    कविता प्यारी बन गाएगी।
    समय मिले तब बैण सगाई।
    कविता संगत प्रीत मिताई।

    समय नाव ही डुबा तराए,
    वक्त नदी है समय समंदर।
    वक्त बने तो क्या से क्या हो,
    मानव बना, क्रमिक था बंदर।
    समय संग तो सोचो भाई,
    कविता संगत प्रीत मिताई।

    वक्त क्षमा कब करे किसी को,
    कृष्ण,पाण्डवों से बलशाली।
    वक्त मार से हुए सुदामा,
    हमने जानी सब बदहाली।
    फुरसत मरे मिलेगी भाई,
    कविता संगत प्रीत मिताई।
    . ______
    बाबू लाल शर्मा “बौहरा”