यहाँ पर चंद्रभान पटेल चंदन के ग़ज़ल (Chandan Ke Gazal) के बारे में पढेंगे यदि आपको अच्छी लगी हो तो शेयर जरुर करें

मैं दरिया के बीच कहीं डूबा पत्थर
मैं दरिया के बीच कहीं डूबा पत्थर ,
तू गहनों में जड़ा हुआ महँगा पत्थर।।
तुझ को देख के नदी का पानी ठहर गया,
तुझ को छू कर हरकत में आया पत्थर।।
तेरा नाम लिखा जैसे ही तैर गया,
जब जब मैंने पानी में फेंका पत्थर।।
सब चीज़ों का बँटवारा जब ख़त्म हुआ,
मेरे हिस्से में आया सारा पत्थर।।
मैंने ख़ुदा बना देने का लोभ दिया
तब जाकर तो मुश्किल से टूटा पत्थर।।
–चन्द्रभान ‘चंदन’
फिर वही दर्द का सहर आया
फिर वही दर्द का सहर आया,
आज रस्ते में उसका घर आया..
थी ये उम्मीद अब भी जी लूंगा,
तब अचानक ही वो नज़र आया..
इक सजा मैंने भी मुकर्रर की,
वो खड़ी थी के मैं गुज़र आया..
ज़िन्दगी ज़ायदाद सी लिख कर,
ज़िन्दगी उसके नाम कर आया..
अब तमन्ना रही न जीने की,
इस कदर मैं वहां से मर आया..
सोच कर वो भी खुश हुई होगी,
कैसे ये ज़ख्म से उभर आया…
*- चंदन*
मुझे ये पूछते हैं सब मेरे ग़म का सबब* क्या है,
मुझे ये पूछते हैं सब मेरे ग़म का सबब* क्या है,
ज़माना किस कदर समझे मुहब्बत की तलब क्या है
जो आँखें सो नहीं पाई है ख़्वाबों के बिखरने से
उन आँखों से ज़रा पूछो बिना दीयों के शब* क्या है
अगर बोलूँ किसी से कुछ तो लहज़े में मुहब्बत हो
मुझे घर के बुज़ुर्गों ने सिखाया है अदब* क्या है
तज़ुर्बों को मेरे आँसू से कागज़ पर सज़ाता हूँ
यही तो शाइरी है दोस्त इसमें और ग़ज़ब क्या है
हज़ारों चोट खाकर भी जिसे हासिल नहीं मरहम
भला अब क्या पता उसको दवा क्या है मतब* क्या है
©चन्द्रभान ‘चंदन’
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- सबब – कारण
शब – रात
अदब – इज़्ज़त, आदर
मतब – अस्पताल
तुम्हारी यादों को आँसुओं से
तुम्हारी यादों को आँसुओं से भिगो भिगो के मिटा रहा हूँ,
बचे हुए थे सबूत जितने समेटकर सब जला रहा हूँ.
कि एक तुम हो जिसे परिंदों के प्यास पे भी तरस नहीं है,
मैं कतरा कतरा बचा के सबके लिए समंदर बना रहा हूँ..
ग़ज़ब की उसने ये शर्त रक्खी या वो जियेगी या मैं जियूँगा,
कई बरस से मैं मर चुका हूँ यकीन सबको दिला रहा हूँ..
नसीब लेती है कुछ न कुछ तो, कहाँ किसी को मिला है सबकुछ,
जो मेरे किस्मत में ही नहीं था, उसी का मातम मना रहा हूँ..
दगा किया था हमीं से तुमने, हमीं से रहते ख़फ़ा ख़फ़ा हो,
जो क़र्ज़ मैंने लिया नहीं था, उसी की कीमत चुका रहा हूँ..
*©चन्द्रभान पटेल ‘चंदन’
वो मुझे याद आता रहा देर तक
वो मुझे याद आता रहा देर तक,
मैं ग़ज़ल गुनगुनाता रहा देर तक
उसने पूछी मेरी ख़ैरियत वस्ल में
मैं बहाने बनाता रहा देर तक
उसने होठों में मुझको छुआ इस तरह
ये बदन कँपकपता रहा देर तक
उसके दिल में कोई चोर है इसलिये
मुझसे नज़रे चुराता रहा देर तक
भूख़ से मर गया फिर यहाँ इक किसान
अब्र आँसू बहाता रहा देर तक
मेरे हिस्से में जो ग़म पड़े ही नहीं
शोक उनका मनाता रहा देर तक
© चन्द्रभान “चंदन”
जो शख़्स जान से प्यारा है
जो शख़्स जान से प्यारा है पर करीब नहीं
उसे गले से लगाना मेरा नसीब नहीं
वो जान माँगे मेरी और मैं न दे पाऊँ
ग़रीब हूँ मैं मगर इस क़दर ग़रीब नहीं
हसीन चेहरों के अंदर फ़रेब देखा है
मेरे लिए तो यहाँ कुछ भी अब अजीब नहीं
जो बात करते हुए बारहा चुराए नज़र
तो जान लेना कि वो शख़्स अब हबीब नहीं
जिसे हुआ हो यहाँ सच्चा इश्क वो ‘चंदन’
बिछड़ भी जाएं अगर, तो भी बदनसीब नहीं
चन्द्रभान ‘चंदन’
रायगढ़, छत्तीसगढ़
भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए
करूँ तफ़सील अगर तेरी तो हर लम्हा गुज़र जाए,
तुझे देखे अगर जी भर कोई तो यूँ ही मर जाए..
यहाँ हर शख्स मेरे दर्द की तहसीन करता है,
भरे महफ़िल से शाइर उठ के जाए तो किधर जाए..
हर इक दिन काटना अब बन गया है मसअला मेरा,
तेरे पहलूँ में बैठूँ तो मेरा हर ज़ख्म भर जाए..
यही सोचा था पागल ने बिछड़कर टूट जाऊँगा,
अभी ज़िंदा है मेरा हौसला उस तक ख़बर जाए..
इरादा क़त्ल का हो और आँखों में मुहब्बत हो,
भला इस मौत से ‘चंदन’ कोई कैसे मुकर जाए..
©चन्द्रभान पटेल ‘चंदन’
तफ़सील – विस्तार वर्णन
तहसीन – वाह वाही, दाद देना, प्रशंसा
क़ाफ़िया – अर
रदीफ़ – जाए
बह्र – बहर-ए-हजज़ मुसम्मन सालिम
अरकान – 1222 1222 1222 1222
अब बुरा सा लगता हूँ…
हूँ मुक़म्मल पर ज़रा सा लगता हूँ,
हर किसी को अब बुरा सा लगता हूँ…
कलतलक ये खेल पूरा मेरा था,
आज मैं खुद मोहरा सा लगता हूँ…
था जिसे मैं जान से भी क़ीमती,
लो उसी को सरफिरा सा लगता हूँ…
नफरतों में इश्क़ की सुनके ग़ज़ल,
बुज़दिलों को बेसुरा सा लगता हूँ…
जो मेरी नज़रों से छिपते फिरते थे,
अब उन्हीं को मैं डरा सा लगता हूँ…
बोल दूँ मुझको नहीं है इश्क तो,
लड़कियों को मसखरा सा लगता हूँ…
@चंदन
मुझे रखकर खयालों में ज़रा ये सोंचना हमदम
मुझे रखकर खयालों में ज़रा ये सोंचना हमदम,
चराग़-ए-रहगुज़र से मुश्किलें ज़्यादा हुई या कम…
कभी लगता था बिन तेरे मुक़म्मल दिन नहीं होगा,
अधूरी शाम तेरे नाम लिखकर जी रहे हैं हम…
मिले जो घाव किस्मत से, सुकूँ एक पल नहीं मिलता,
दिला दे कोई हमको भी ज़रा सा वक़्त का मरहम..
बड़ा मगरूर है पतझड़, बड़ा मायूस है सावन,
खुदाया फिर से लौटा दे, मुहब्बत का वही मौसम…
न हसरत है न चाहत है खुदा इतनी इबादत है,
रहे मासूम के चेहरे पे खुशियों की फिजा हरदम..
@चंदन
तुम्हारी यादों को आँसुओं से भिगो भिगो के मिटा रहा हूँ,
तुम्हारी यादों को आँसुओं से भिगो भिगो के मिटा रहा हूँ,
बचे हुए थे सबूत जितने समेटकर सब जला रहा हूँ।
कि एक तुम हो जिसे परिंदों के प्यास पे भी तरस नहीं है,
मैं कतरा कतरा बचा के उनके लिए समंदर बना रहा हूँ..
ग़ज़ब की उसने ये शर्त रक्खी या मैं जियूँगा या वो जियेगी,
कई बरस से मैं मर चुका हूँ यकीन उसको दिला रहा हूँ.
नसीब लेती है कुछ न कुछ तो, कहाँ किसी को मिला है सबकुछ,
जो मेरे किस्मत में ही नहीं था, उसी का मातम मना रहा हूँ।
दगा किया था हमीं से तुमने, हमीं से रहते ख़फ़ा ख़फ़ा हो
जो क़र्ज़ मैंने लिया नहीं था, उसी की कीमत चुका रहा हूँ *
©चन्द्रभान पटेल ‘चंदन’*
वतन में ये जो दहशत है
सियासत है, सियासत है.._ _मुझे तुम याद आती हो,
शिकायत है, शिकायत है.._ _जिधर देखूं तुम्ही तुम हो,
मुहब्बत है, मुहब्बत है.._ _तेरे रुखसार का डिम्पल,
कयामत है, कयामत है.._ _मिरे खाबों में आती हो,
शरारत है, शरारत है.._ _नहीं करता तुम्हें बदनाम,
शराफ़त है, शराफ़त है.._ _मुझे बर्बाद करके वो,
सलामत है, सलामत है.._ _तुम्हें मैं किस तरह भूलूँ,
ये आदत है, ये आदत है.._ _तुम्हारे ख़ाब हो पूरे,
इबादत है, इबादत है.._
© *चन्द्रभान पटेल ‘चंदन’*