चित्र मित्र इत्र विचित्र पर कविता

चित्र रचित कपि देखकर,डरती सिय सुकुमारि।
अगम पंथ वनवास में, रहती जनक दुलारि।।

मित्र मिले यदि कर्ण सा, सखा कृष्ण सा साथ।
विजित सकल संसार भव, बने त्रलोकी नाथ।।

गन्धी चतुर सुजान नर, बेच रहे नित इत्र।
सूँघ परख कर ले रहे, ग्राहक बड़े विचित्र।।

मित्र इत्र सम मानिये, यश सुगंध प्रतिमान।
भव सागर के चित्र को, करते सुगम सुजान।।

शर्मा बाबू लाल ने, दोहे लिख कर पाँच।
इत्र मित्र के चित्र को, शब्द दिए मन साँच।।
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© बाबू लाल शर्मा,विज्ञ

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