धरा पुत्र को उसका हक दें -लावणी छंद(१६,१४ मात्रिक)
अन्न उगाए, कर्म देश हित,
कुछ अधिकार इन्हे भी दो।
मेघ मल्हारें दे न सको तो,
मन आभार इन्हे भी दो।
टीन , छप्परों में रह लेता,
जगते जगते..सो लेता।
धूप,शीत,में हँसता रहता,
गिरे शीत हिम रो लेता।
वर्षा रूठ रही तो क्या है,
वर्ष निकलते रहतें है।
फसलें सूखे तो तन सूखे,
विवश सिसकते रहतें है।
बच्चों की शिक्षा भी कैसी,
अन पढ़ जैसे रहतें है।
कर्जे ,गिरवी , घर के खर्चे,
सदा ठिनकते ..रहतें है।
वही दिगम्बर खेतों का नृप
जून दिसम्बर रहा खड़े।
हक मांगे तो मिलें गोलियाँ,
या नंगे तन बैंत पड़े।
फसल बचे तो सेठ चुकेगा,
पिछले कर्जे ब्याज धरे।
बिजली बिल, अरु बैंक उधारी ,
मनु , राधा की फीस भरे।
बिटिया के कर करने,पीले
माता का उपचार करे।
खर्च बहुत राजस्व मुकदमे,
गिरते घर पर छान धरे।
सब की थाली भरे सदा वह
रूखी रोटी खाता है।
सब को दूध दही घी देता,
बिना छाछ रह जाता है।
रहन रखे अपने खेतों कोे,
बैंको में रिरियाता है।
सबको अन्न खिलाने वाला,
खुद क्यों फाँसी खाता है?
धरती के धीर सपूतों की,
साधें सच में पूरी हों।
आने वाली पीढ़ी को भी,
कुछ सौगात जरूरी हों।
इससे ज्यादा धरा पूत को,
कब कोई दरकार रहीं।
आप और हम नही सुन रहे,
सुने राम, सरकार नहीं।
धरा पुत्र अधिकार चाहता,
हक उसका,खैरात नहीं।
मत भूलो इस मजबूरी में,
इससे बढ़ सौगात नहीं।
जाग उठे ये भूमि पुत्र तो,
फिर – सिंहासन खैर नहीं।
लोकतंत्र की सरकारों के,
निर्धारक ये, गैर नहीं।
ठाठ बाट अय्याश तम्हारे,
होली जला जला देंगे।
सत्ता की रबड़ी भूलोगे,
मिथ भ्रम सभी गला देंगे।
भू सपूत भगवान हमारे,
सच वरदान यही तो हैं।
फटेहाल यह जब रहते हो,
लगे मशान मही तो है।
धरा देश की सोना उगले,
गौरव गान किसानी का।
सोने की चिड़िया कहलाया,
यह, वरदान, किसानी का।
इनके तो पेट रहे चिपके
दूध दही तुम. .पीते हों।
सबके हित में दुख ये झेलेे,
मौज, तुम्ही बस जीते हो।
इनके हक, को छीन,छीन कर,
ठाठ बाट तुम जीते हो।
इनके घर को जीर्ण शीर्ण कर,
राज मद्य तुम पीते हो।
वोट किसानी, जीते हो तुम,
पुश्तैनी जागीर नहीं।
ठकुर सुहाती करे किसी की,
कृषकों की तासीर नहीं।
सुनो सभी नेता शासन के,
भारी अमला सरकारी।
अगर किसानो को तड़पाया
भूलोगे सब अय्यारी।
परिवर्तन का चक्र चला तो,
सुन्दर साज जलेंं वे सब।
इनको खोने को क्या, बोलो,
कोठी,कार जलेंगे तब।।
राज, राम, से हार रहे ये
गैरो की औकात नहीं।
धरा पुत्र हो दुखी देश में,
….शेष शर्म की बात नहीं।
जयजवान,या जयकिसान के,
… नारों का सम्मान करें।
पर …साकार तभी ये होंगें,
कृषकों के.. अरमान सरे।
खाद,बीज ,औजार दवाएँ,
बिना दाम बिजली दे दो।
जीने का अधिकार दिला कर,
संगत काम इन्हे दे दो।
पीने और सिँचाई लायक,
जल ,की सुविधा दिलवादो।
मंदिर, मस्जिद मुद्दों पहले,
…..घर शौचालय बनवा दो।
हँसते सुबहो, शाम दिखे ये,
मन का मान दिला दो जन।
बच्चों का पालन हो जाए,
नव अरमान दिला दो मन।
✍,
बाबू लाल शर्मा ‘बौहरा’ विज्ञ
सिकंदरा,303326
दौसा, राजस्थान,9782924479
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देश के किसान को समर्पित मेरी रचना पर आप सभी विज्ञ पाठकों की प्रतिक्रिया अपेक्षित है।
वेब संचालक आ. मनीभाईजी का आत्मीय आभार