धर्म की कृत्रिमता पर कविता

कविता संग्रह
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कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति-03.03.22
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हिंदू और मुसलमान दोनों को
ठंड में खिली गुनगुनी धूप अच्छी लगती है
चिलचिलाती धूप से उपजी लू के थपेड़े
दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों
ठंडी हवा के झोंकों से झूम उठते हैं
तेज आंधी की रफ्तार दोनों ही सहन नहीं कर पाते

हिंदू और मुसलमान दोनों को
बारिश अच्छी लगती है
दोनों को बारिश की बूंदे गुदगुदाती है
बाढ़ के प्रकोप से
दोनों ही बराबर भयभीत होते हैं बह जाते हैं उजड़ जाते हैं

हिंदू और मुसलमान दोनों
एक ही पानी से बुझाते हैं अपनी प्यास
दोनों को मीठा लगता है गुड़ का स्वाद
और नीम उतना ही कड़वा

दोनों को पसंद है
पेड़ पौधों और पत्तियों की हरियाली
खिले हुए फूलों के अलग-अलग रंग
और बाग में उठने वाली फूलों की अलग-अलग खुशबू

एक धरती और एक आसमान के बीच
रहते हैं दोनों
कष्ट दोनों को रुलाता है
खुशियां दोनों को हंसाती है
एक जैसे हैं दोनों के नींद और भूख

प्रकृति के गुणों को महसूस करने की प्रकृति
मैंने दोनों में समान पाया है

दोनों की प्रकृति समान है
मगर दोनों बंटे हुए हैं
कृत्रिम धर्म के लबादों में

दरअसल रोज हमें कृत्रिमता से संवारी जा रही है
हममें रोज भरे जा रहे हैं कृत्रिम भाव
धीरे-धीरे कृत्रिम होती जा रही है हमारी प्रकृति
हम अपनी प्रकृति में जीना
धीरे-धीरे भूलते जा रहे हैं।

नरेंद्र कुमार कुलमित्र
9755852479

Comments

  1. Rhys Avatar
    Rhys

    Right on my man!

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