धुआँ घिरा विकराल

धुआँ घिरा विकराल

बढ़ा प्रदूषण जोर।
इसका कहीं न छोर।।
संकट ये अति घोर।
मचा चतुर्दिक शोर।।
यह भीषण वन-आग।
हम सब पर यह दाग।।
जाओ मानव जाग।
छोड़ो भागमभाग।।
मनुज दनुज सम होय।
मर्यादा वह खोय।।
स्वारथ का बन भृत्य।
करे असुर सम कृत्य।।
जंगल किए विनष्ट।
सहता है जग कष्ट।।
प्राणी सकल कराह।
भरते दारुण आह।।
धुआँ घिरा विकराल।
ज्यों उगले विष व्याल।।
जकड़ जगत निज दाढ़।
विपदा करे प्रगाढ़।।
दूषित नीर समीर।
जंतु समस्त अधीर।।
संकट में अब प्राण।
उनको कहीं न त्राण।।
प्रकृति-संतुलन ध्वस्त।
सकल विश्व अब त्रस्त।।
अन्धाधुन्ध विकास।
आया जरा न रास।।
विपद न यह लघु-काय।
शापित जग-समुदाय।।
मिलजुल करे उपाय।
तब यह टले बलाय।।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

Leave A Reply

Your email address will not be published.