ग़ज़लः
रात भर मंज़ूर जलना, जोत ने जतला दिया
दूर करके हर अँधेरा दीप ने दिखला दिया
घिर गया था हर तरफ़ से, रात काली थी बहुत
चाँद ने हँस कर मुझे पर रास्ता बतला दिया।
आग की बहती नदी को पार करना था कठिन
चुप्पियों ने ज़िंदगी का हर हुनर सिखला दिया।
बिन किये कोई ख़ता मुझको मिली हर पल सजा
आँसुओं ने इसलिये चुपचाप फिर नहला दिया।
बेबसी का था कफ़स थीं धर्म की भी बेड़ियाँ
इसलिये तूने हँसी में सच ‘अमर’ झुठला दिया।
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी