फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों
एक लड़की दीन, हीन और दुखिया,
खाक पर बैठी हुई है दिल-फ़िगार ।
चीथड़ो से उसका जिस्म है ढँका हुआ,
कायनाते-दिल में है प्रलय मचा हुआ ।
आँख में नींद का है हल्का खुमार,
कुंचित अलकों पर है गर्द -गुबार ।
एक कुहना है ओढ़नी ओढ़े हुए,
अंदरूनी दुख की है सच्ची दास्ताँ
कहती उसकी खून जैसी लाल आँखें,
बेकसी, बेचारगी का उसका हाल ।
उसके कोमल हाथ भीख की खातिर उठे,
आह ये आफत, और ये बर्बादियाँ ।
रास्ते में मिल जाते हमें अक्सर
ऐसे भिखारी, हाथ फैलाए हुए ।
सब सुविधाएँ मिलती है जब
फिर दिखे रास्ते के भिखारी क्यों ।
आह ये जन्नत निशाँ ये हिन्दोस्तां,
तू कहाँ और यह तेरी हालत कहाँ ।
अनिता मंदिलवार “सपना”
अंबिकापुर सरगुजा छ.ग
मोबाइल नं 9826519494
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद
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