मातृ भाषा पर कविता
देख रहा है बिनोद,
मातृभाषा की क्या दुर्दशा है?
खुद तो बोलने को कतराते हैं,
और विश्व भाषा बनाने की मंशा है।
देख रहा है बिनोद,
फर्राटेदार अंग्रेजी को शान समझते हैं।
जो हिन्दी का ज्ञान रखता है,
उसे अनपढ़, गंवार, नादान समझते हैं।
देख रहा है बिनोद,
हिन्दी की औचित्यता इतनी सी रह गई है।
कभी जो सबके जुबां की मातृभाषा हुआ करती थी,
अब तो मात्र भाषा बन कर रह गई है।
देख रहा है बिनोद,
माना विश्व पटल पर अंग्रेजी जरूरी है।
पर हिन्दी हमारी शान है,
पूरे हिंदुस्तान को केन्द्रित करती धुरी है।
विनोद कुमार चौहान “जोगी”
जोगीडीपा, सरायपाली
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