हम मजदूर कहलाते हैं

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झुग्गी,झोपड़ियों में रहते हैं
ऊंची इमारतें बनाते हैं
हम मजदूर कहलाते हैं!
पत्थरों को तोड़ते
खून पसीना बहाते हैं
भूखे पेट कभी सूखी रोटी
फिरभी मुस्कुराते हैं!
जिस रोज पगार पाते हैं
त्योहार हम मनाते हैं
कल की कोई चिंता नहीं
जीवन सरल बनाते हैं!
एसी कार में आते हैं
चार बातें सुना जाते हैं
अंगोछे से पसीना पोंछ
हम काम में जुट जाते हैं!
हम मजदूर कहलाते हैं!
हम मजदूर कहलाते हैं!
–डॉ. पुष्पा सिंह ‘प्रेरणा’
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद