हसरतों को गले से लगाते रहे

हसरतों को गले से लगाते रहे,
थोड़ा थोड़ा सही पास आते रहे..
आप की बेबसी का पता है हमें,
चुप रहे पर बहुत ज़ख़्म खाते रहे..
इस ज़माने का दस्तूर सदियों से है,
बेवजह लोग ऊँगली उठाते रहे..
मेरी दीवानगी मेरी पहचान थी,
आग अपने ही इसमें लगाते रहे..
इश्क़ करना भी अब तो गुनह हो गया,
हम गुनहगार बन सर झुकाते रहे..
तुमको जब से बनाया है अपना सनम,
बैरी दुनिया से खुद को छुपाते रहे..
इश्क़ की अश्क़ सदियों से पहचान है,
तेरी आँखों के आँसू चुराते रहे..
तुमको यूँ ही नहीं जान कहते हैं हम,
जान ओ दिल सिर्फ़ तुमपे लुटाते रहे..
ख़्वाब मेरे अधूरे रहे थे मगर,
हम तो आशा का दीपक जलाते रहे..
है ख़ुदा की इनायत, है फ़ज़लो करम,
अब क़दम दर क़दम वो मिलाते रहे..
हम भी चाहत में उनके दिवाने हुए,
वो भी ‘चाहत’ में हमको लुभाते रहे..


नेहा चाचरा बहल ‘चाहत’
झाँसी
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद


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