भूख पर कविता
भूख पर कविता
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भीख माँगने में मुझे लाज तो आती है
पर ये जालिम भूख बड़ी सताती है।
सुबह से शाम दर दर खाती हूँ ठोकर
दो वक्त की रोटी मुश्किल से मिलती है।
मैलै कुचैले वसन में बीतता है बचपन
दिल की ख्वाहिश अधूरी ही रहती है।
ताकि भाई खा सके पेट भर खाना
बहाना बना पानी पी भूख सहती है।
कहाँ आती है भूख पेट नींद भी ‘रुचि’
आँखों से आँसू बरबस ही बहती है।
✍ सुकमोती चौहान रुचि
बिछियां, महासमुन्द, छ.ग.
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