सदा छला जन का विश्वास

kavita

विश्वास गीत (१६,१५)


सत्ताधीशों की आतिश से,
जलता निर्धन का आवास।
राज महल के षडयंत्रों ने,
सदा छला जन का विश्वास।

युग बीते बहु सदियाँ बीती,
चलता रहा समय का चक्र।
तहखानों में धन भर जाता,
ग्रह होते निर्बल हित वक्र।
दबे भूलते मिले दफीने,
फलती मचली मिटती आस।
राज महल के षडयंत्रों ने,
सदा छला जन का विश्वास।

सत्ता के नारे आकर्षक,
क्रांति शांति के हर उपदेश।
भावुक जन को छलते रहते,
आखिर शासक रहते शेष।
सिंहासन परिवार सदा ही,
करते मौज रचाते रास।
राज महल के षड़यंत्रों ने
सदा छला जन का विश्वास।

युद्ध और बदलाव सत्य में,
शोषण का फिर नवल विधान।
लुटता पिटता भोला भावुक,
भावि नाश से सच अनजान।
विश्वासों की बलिवेदी पर,
आस बिखरती उखड़ी श्वाँस।
राजमहल के षड़यंत्रों ने,
सदा छला जंन का विश्वास।


बाबू लाल शर्मा बौहरा ‘विज्ञ’

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *