जाति पर कविता

जाति पर कविता

जाति
जाती ही नहीं
बहुत हैं गहरी
इसकी जड़ें
जिसे नित
सींचा जाता है
उन लोगों द्वारा
जिनकी कुर्सी को
मिलता है स्थायित्व
जाति से
जिनका चलता है व्यवसाय
जाति से
जिन्हें मिला है ऊंचा रुतबा
जाति से
जिन्हें परजीवी बनाया
जाति ने
वे चाहते हैं
उनकी बनी रहे सदैव
जाति आधारित श्रेष्ठता
भले ही इससे
किसी का
कितना ही शोषण
क्यों न हो?

-विनोद सिल्ला©

Leave A Reply

Your email address will not be published.