जो मेरे द्वारे तू आए
प्राण मरुस्थल खिल-खिल जाए
साँस-डाल भी हिल-हिल गाए
छोड़ झरोखे राज महल के
जो मेरे द्वारे तू आए ।
जुड़े सभा सपनों की आकर
आंखों की सूनी जाजम पर
खेल न पाएँ बूँदें खारी
पलकों की अरुणिम चादर पर
चहल-पहल हो मेलों जैसी
गुमसुम अधरों पर गीतों की
फुल उदासी झड़े धूल-सी
खिले जवानी नभ दीपों-सी
उमर चाल छिपते सूरज-सी
घबराकर पीली पड़ जाए ।
छोड़ झरोखे राज महल के
जो मेरे द्वारे तू आए ।
शुष्क मरुस्थल-सी सूखी देह से
फूट पड़ें अमृत के धारे
दीपदान करने को दौड़ें
खुशियाँ मुझे जिया के द्वारे
संगीतमयी संध्या-सी हों
डूबी-सी धड़कन की रातें
मानस की चौपाई जैसे
महकें अलसायी-सी बातें
झरे मालती रोम-रोम से
कस्तूरी गंध बदन छाए
छोड़ झरोखे राज महल के
जो मेरे द्वारे तू आए ।
उतर चाँदनी नील गगन से
पूरे चौका मन आँगन में
चुनचुन मोती जड़ें रातभर
सितारे फकीरी दामन में
थपकी दे अरमान उनींदे
अंक सुलाए रजनीगंधा
भर-भर प्याली स्वपन सुधा की
चितवन से छलकाए चंपा
भोर भए पंछी-बिस्मिल्लाह
शहनाई ले रस बरसाए ।
छोड़ झरोखे राज महल के
जो मेरे द्वारे तू आए ।
अशोक दीप
जयपुर