कबाड़ पर कविता -उपमेंद्र सक्सेना

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सब हुआ कबाड़ था,भाग्य में पछाड़ था
रास्ता उजाड़ था, सामने पहाड़ था।

छल- कपट हुआ यहाँ, सो गए सभी सपन
कर दिया गया दहन, मिल सका नहीं कफ़न
पास के बबूल ने ,दी जिसे बहुत चुभन
बेबसी दिखा रही, है यहाँ विचित्र फन
स्वार्थ के कगार पर, त्याग जब गया मचल
लोभ- लालसा बढ़ी, लोग भी गए बदल
क्रोध में रहा न बल, भाव बस गए उबल
साथ जो रहे कभी, गैर बन करें दखल
हो रहा बहुत कहर, नीतियाँ बनीं जहर
प्रेरणा गई ठहर, रुक गई नई लहर
चुप हुए सभी पहर, सूखने लगी नहर
रात भी उठी सिहर, हो सकी नहीं सहर

खाट के नसीब में, अब नहीं निबाड़ था
जेल के कपाट पर, लिख दिया तिहाड़ था।
सब हुआ कबाड़….

लग रही बहुत थकन, न्याय का हुआ दमन
और बढ़ गई घुटन, जो नहीं हुई दफ़न
सुख हुए सभी हिरन ,टीस की बढ़ी तपन
जल उठा यहाँ चमन, किस तरह बने अमन
भाग्य के विधान में, जब विडंबना बदी
वक्त के पड़ाव पर, फिर सिसक उठी सदी
डाल भाव की झुकी, वेदना जहाँ लदी
हो रहा नहीं उचित, आँख से बही नदी
आश की किरण ढले, जो हमें बहुत खले
लाभ जो उठा गए, तिकड़मी बने भले
वे कुटिल हुए यहाँ, काटते मिले गले
योग्यता हुई विवश,हाथ आज वह मले

जो लताड़ से जुड़ा, काम का न लाड़ था
सत्य का हुआ यहाँ, खूब चीड़-फाड़ था।
सब हुआ कबाड़…..

रचनाकार- उपमेंद्र सक्सेना एडवोकेट


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