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फ़िल्म समीक्षा ‘कलयुग’ : श्याम बेनेगल (1981)

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फ़िल्म समीक्षा ‘कलयुग’ : श्याम बेनेगल (1981)

Kalyug movie

महाभारत की कथा विघटित होते गण समाजों और विकसित होते राजसत्ता के दौर की कहानी है। यह अपने यथार्थवादी दृष्टिकोण के लिए भी चर्चित रहा है। इसमे जिस तरह से सत्ता की केन्द्रीयता है और ‘नैतिकता’ को द्वितीयक दर्जा दिया गया है वह बाद के सामंती समाजों में कम से कम सैद्धांतिक स्तर पर दुर्लभ रहा है। महाभारत में यह प्रकट रूप से है।वहां सत्ता प्राप्ति के लिए नैतिकता-अनैतिकता का मापदंड खत्म सा हो गया है; खून के रिश्ते और पारिवारिक सम्बन्ध बेमानी हो गये हैं। एक तरह से वहां आधुनिक पूंजीवादी समाजों की सामाजिक सम्बन्धों की पूर्व पीठिका सा है। यह अकारण नहीं पौराणिक काल निर्धारण में महाभारत(द्वापर) के बाद ही ‘कलयुग’ का आगमन होता है।

कलयुग(कलियुग) शब्द से ही एक नकारात्मकता का बोध प्रकट किया जाता रहा है।यानी यह युग नहीं मूल्यबोध हो गया है।बहुधा इसे ‘सतयुग’ के विपरीत देखा जाता है। सतयुग में जहां सब कुछ ‘अच्छा’ था वहीं कलयुग में अधिकतर बुरा।यों कल(कलि)युग का शाब्दिक अर्थ ‘मशीनी युग’ भी होता है।खासकर पन्द्रहवी-सोलहवीं शताब्दी के व्यापारिक पूंजीवाद के दौर में सामंती मूल्यों के एक हद तक विघटन ने कलयुग की अवधारणा को बल दिया, क्योंकि लंबे समय से चले आ रहे सामंती मूल्यों का बिखराव एक झटके के समान था जिसकी एक प्रतिक्रिया कलयुग के रूप प्रकट हुई।

‘महाभारत’ और ‘कलयुग’ के इस सम्मिलन ने भारतीय समाज को गहरे रूप से प्रभावित किया है। आज भी पारिवारिक कलह की तुलना महाभारत से की जाती है और सामाजिक मूल्यों से विचलन को कलयुग का प्रभाव भी कहा जाता है।

फ़िल्म ‘कलयुग’ में इसी तरह की पारिवारिक ‘महाभारत’ की कहानी है।फ़िल्म में एक ही परिवार के दो पीढ़ी के बाद के दो हिस्सों में व्यापारिक परिस्पर्धा और प्रतिष्ठा की लड़ाई है। यह लड़ाई प्रच्छन्न से क्रमशः प्रकट होती जाती है।कहाँ तो खून के रिश्ते और प्रेम! और कहाँ हर पल दूसरे को नीचा दिखाने की चाह! इसकी चरम बदला और हत्या तक चली जाती है।परिणाम वही होता है सर्वनाश; किसी को कुछ हासिल नही!

फ़िल्म में भीष्मचन्द और रामचन्द नामक दो कारोबारी भाइयों की कहानी है।भीष्मचन्द अविवाहित है और उसने रामचन्द के निधन के बाद उसके दोनो बेटों खूबचन्द और पूरनचंद को पाल-पोसकर बड़ा किया।खूबचन्द के बेटों धनराज और सन्दीपराज की पूरनचंद के बेटों धरमराज, बलराज और भरतराज के बीच अदावत चलती रहती है।

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फ़िल्म में महाभारत की तरह एक निरापद पात्र ‘करन’ भी है,जो अनाथ है और जिसकी भीष्मचन्द ने परवरिश की है। वह धनराज को कारोबार में सहयोग करता है और वहां उसका उचित सम्मान है, मगर फिर भी आख़िरकार वह पारिवारिक सदस्य नहीं हैं इसलिए काबिल होकर भी उसकी सीमाएं है। भरतराज और उसके भाई तो और भी उसे उपेक्षित करते हैं क्योंकि वह उनके ‘दुश्मन’ के खेमे में है।

मगर विडम्बना कि वे तीनों उसके भाई ही हैं।पिता के अक्षमता के कारण उनकी माँ सावित्री के स्वामी प्रेमानन्द के संसर्ग से तीन बच्चे हुए जिन्हें पिता का नाम मिला। करन उन्ही से विवाह पूर्व का सन्तान है जिसे किसी का नाम नहीं मिला इसलिए उपेक्षित है। यह राज़ सावित्री, भीष्मचन्द तक सीमित है।

करन की योग्यता उसके पहचान के संकट के आगे निस्तेज है, फिर भी उसमे विद्रोह नहीं मानवीयता है। मगर धनराज के प्रति निष्ठा के कारण वह भरतराज परिवार को पछाड़ने के लिए हत्या करवाने की हद तक जाता है। और जब उसके सामने उन्ही के भाई होने की हक़ीकत खुलती है तब आत्मग्लानि, क्षोभ और बेबसी के सिवा कुछ नहीं रह जाता। अंततः वह भी कर्ण की तरह मारा जाता है। इस हक़ीक़त से भरतराज का परिवार भी आहत होता है मगर तब तक सब बर्बाद हो चुका होता है।

फ़िल्म में स्त्रियां लगभग यांत्रिक हैं और पितृसत्ता के मूल्यों से संचालित हैं। वे इस पारिवारिक तबाही निष्क्रिय तटस्थता से देखती रहती हैं। सावित्री जरूर कुंती की तरह करन के पास जाकर उसे भाई होने की दुहाई देकर इस बर्बादी को रोकने का प्रयास करती है,और करन द्वंद्व से मुक्त होकर सहयोग करने का प्रयास भी करता है मगर हालात हाथ से फिसलते चले जाते हैं।’सुप्रिया’ का चरित्र द्रोपदी सा है,परिवार में निर्णयों में एक हद तक हस्तक्षेप है।पति से एक समय के बाद अनौपचारिक दूरी सा है।आखिर में भरतराज से निकटता बढ़ाने का संकेत है। वह परिवार में अपनी स्थिति मजबूत रखने के लिए प्रयत्नरत दिखाई पड़ती है।

कुल मिलाकर फ़िल्म आधुनिक अभिजातवर्गीय परिवार का महाभारत है।सामंती-पूंजीवादी मूल्यों से संस्कारित इस परिवार में झूठी प्रतिष्ठा और संदेह के आगे मानवता दम तोड़ देती है। ये जितने एक दूसरे के करीब दिखते हैं उतने ही दूर हैं।इनका मिलना-जुलना, इकट्ठा होना सब यांत्रिक है,अंदर कहीं नफ़रत और प्रतिस्पर्धा है।यहां भाई-भाई, पति-पत्नी सब जैसे किसी औपचारिकता का निर्वहन कर रहे हैं। रिश्तों में गर्माहट कहीं नहीं है।

फ़िल्म का निर्देशन, चुस्त कथानक और सांकेतिकता, अभिनय सभी महत्वपूर्ण हैं।पात्रों के द्वंद्व और परिस्थितियों की विडम्बना और बेबसी को बेहतर ढंग से उभारा गया है। धनराज का आत्महत्या से पहले अपनी छोटी बच्ची से पोयम सुनने का सुखद वातावरण एक झटके में मातम में बदल जाना हतभ्रत करता है।इस तरह और भी छोटी-छोटी घटनाएं हैं जो सार्थक निर्देशन को प्रकट करते हैं।पात्रों की संख्या अधिक होने के कारण भूमिकाएं सीमित मगर महत्वपूर्ण हैं। महाभारत अपने विराटता और यथार्थवादी चित्रण के कारण हर दौर के कलाकारों को प्रभावित करता रहा है और आगे भी करता रहेगा।


[2021]
अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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