लकड़ियों पर कविता

            
चिता की लकड़ियाँ,
ठहाके लगा रही थीं,
शक्तिशाली मानव को,
निःशब्द जला रही थीं!
मैं सिसकती रही,
जब तू सताता था,
कुल्हाड़ी लिए हाथ में,
ताकत पर इतराता था!
भूल जाता बचपन में,
खिलौना बन रिझाती रही,
थक जाता जब खेलकर,
पालने में झुलाती रही!
देख समय का चक्र,
कैसे बदलता है,
जो जलाता है वो,
कभी खुद जलता है!
मेरी चेतावनी है,
अब मुझे पलने दे,
पुष्पित,पल्लवित,
होकर फलने दे!
वृक्ष का बन मित्र उसे,
स्नेह और दुलार दे,
प्यार से जीना सीख,
औरों को भी प्यार दे।
—–डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
अम्बिकापुर,सरगुजा(छ. ग.)
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद


Posted

in

by

Tags:

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *