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 2nd रविवार मई मातृ दिवस पर हिंदी कविता

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मातृपितृ पूजा दिवस भारत देश त्योहारों का देश है भारत में गणेश उत्सव, होली, दिवाली, दशहरा, जन्माष्टमी, नवदुर्गा त्योहार मनाये जाते हैं। कुछ वर्षों पूर्व मातृ पितृ पूजा दिवस प्रकाश में आया। आज यह 14 फरवरी को देश विदेश में मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में रमन सरकार द्वारा प्रदेश भर में आधिकारिक रूप से मनाया जाता है

मातृ दिवस मई (दूसरा रविवार) MOTHER'S DAY 2ND SUNDAY OF MAY MONTH
मातृ दिवस मई (दूसरा रविवार) MOTHER’S DAY 2ND SUNDAY OF MAY MONTH

ममा मेरी है बहुत प्यारी

ममा मेरी है बहुत प्यारी,
लगे दिखने में राजकुमारी।

रंग बिरंगी महक बिखेरे,
सुंदर फूलों की है क्यारी।

जी भर कर लाड़ लड़ाती,
लगती मुझको सबसे न्यारी।

दिनभर करती मेरा काम,
मेरी माता बहुत दुलारी।

सेवा मेरी करती रहती,
लगे न उनको कोई बीमारी।

सबका वो रखती है ख्याल,
करवाती मुझको घुड़सवारी।

मनसीरत को करती प्यार,
मदर डे पर देता हूँ पारी।


शंकर आँजणा नवापुरा धवेचा
बागोड़ा जालोर राजस्थान

माँ पर रचित कुंडलिनी

जननी माँ माता कहें , ममता का भंडार।
ईश्वर का प्रतिरूप है,माँ जग का आधार।। 
माँ जग का आधार , माँ  है दुख मोचिनी।
माँ  की शक्ति अपार,माँ है जगत जननी।।
                 

माँ जैसा कोई नही, माँ का हृदय विशाल।
वात्सल्य से भरपूर है,माँ रखती खुशहाल।।
माँ रखती खुशहाल, माँ त्याग की मूरत है। 
माँ देवी का रूप ,  बड़ी  भोली  सूरत  है।।              

पूजा  वरदान है माँ , गीता  और  कुरान।
माँ का प्यारअमूल्य है,माँ सृष्टि में महान।।
माँ सृष्टि में महान , माँ  जैसा  नही दूजा।
लो माँ काआशीष,माँ भगवान की पूजा।।
                 


चाहे पूत कपूत हो, मात न होय कुमात।
ईश्वर ने  दी है हमे, यह अद्भुत सौगात।।
यह अद्भुत सौगात , माँ ही प्रथम गुरु है।
प्रेमऔर विश्वास,यह सृष्टि माँ से शुरु है।।


    ©डॉ एन के सेठी

सौम्य-स्वरूपा माँ

सौम्य-स्वरूपा माँ मेरी,    
             तुम वो शीतल चंदन हो।
जिसके आँचल के साया में,  
              लहरता नंदनवन हो।
छीर-सुधा रसपान कराके,   
              पुष्ट बनाया मेरा तन मन।
पाला-पोषा तूने मुझको,   
             करके सौ-सौ स्नेह जतन।
अपने त्याग-तपस्या से माँ, 
              तूने मुझे बनाया कंचन।
बिन मांगे सब पाया मैने,
            चरणों को छू करते ही वंदन।
निश्छल ममता भरे हृदय में,     
            तुम वो निर्मल गंगाजल हो।
मुझको जग दिखलाने वाली,   
           तुम सुरभित पावन संदल हो।
सौम्य स्वरूपा माँ मेरी,
             तुम वो शीतल चंदन हो।

        “मेरी माँ”

       रविबाला ठाकुर”सुधा”
              (शिक्षिका)

माँ फिर याद आई

मैं जब भी
इस असंख्य भीड़ से
अलग हुआ
या
तिरस्कृत कर ठुकराया गया
मैं जब भी ….
जीवन के अवसादों से घिरा
या लोगों द्वारा
झुठलाया गया
तब-तब
माँ के विचारों का
संबल मिला
किसी दैवीय प्रतिमा की तरह
यथार्थ के धरातल पर
वह मेरा पथ ….
आलोकित करती रही
जब-जब
जीवन की विपत्तियाँ
कुलक्षिणी रात की तरह
मुझे मर्माहत करने लगीं
जब कभी ..
दैत्याकार परछाइयाँ
मुझे अँधेरे में
धकेलने लगीं
तब ..
बचपन की लोरियों ने
उस आत्मविश्वास को
ढूंढ निकाला
जिसे
कहीं रख छोड़ा था मैंने
और
अब तो ….
उस माँ रुपी भगवान से
इतनी सी प्रार्थना है
कि
उसके चरणों की धूल
मेरे मस्तक में
शोभायमान हो
उसके
आँचल का बिछौना
मुझ अबोध की दुनिया का
एक मात्र सराय हो
उस ममतामयी मूरत को
याद करते-करते
आँखें नम हो आई
वक्त के
पथरीले रास्तों पर
आज
माँ फिर याद आई – – – – – –

  प्रकाश गुप्ता ”हमसफ़र” रायगढ़ ( छत्तीसगढ़ )

अमिय स्वरूपा माँ

अन्तर में सुधा भरी है पर, नैनों से गरल उगलती है,
मन से मृदु जिह्वा से कड़वी, बातें हरदम वो कहती है,
जीवन जीने के गुर सारे, बेटी को हर माँ देती है,
बेटी भी माँ बनकर माँ की,ममता का रूप समझती है।


जब माँ का आँचल छोड़ दिया, उसने नूतन घर पाने को,
जग के घट भीतर गरल मिला,मृदुभाषी बस दिखलाने को,
जो अमिय समान बात माँ की, तूफानों में पतवार बनी,
जीवन का जंग जिताने को, माता ही अपनी ढाल बनी।


जीवन आदर्श बनाना है, अविराम दौड़ते जाना है
बेटी को माँ की आशा का, घर सुंदर एक बनाना है,
मंथन कर बेटी का जिसने, गुण का आगार बनाया है,
देवी के आशीर्वचनों से,सबने जीवन महकाया है।


भगवान रूप माँ धरती पर ,  ममता की निश्छल मूरत है
हर मंदिर की देवी वो ही, प्रतिमा ही उसकी सूरत है
जो नहीं दुखाता माँ का मन, संसार उसी ने जीता है
वो पुत्र बात जो समझ सके,जीवन मधुरस वो पीता है।


डॉ.सुचिता अग्रवाल “सुचिसंदीप”
तिनसुकिया,असम

माँ पर कविता

उत्सव  फाग  बसंत तभी
जब मात महोत्सव संग मने।

जीवन  प्राण  बना  अपना,
तन माँ अहसान महान बने।

दूध  पिये  जननी  स्तन  का,
तन शीश उसी मन आज तने।

धन्य  कहें  मनुजात  सभी, 
जन मातु सुधीर सुवीर जने।

भाव  सुनो  यह  शब्द महा,
जनमे सब ईश सुसंत जहाँ।

पेट  पले  सब  गोद  रहे,
अँचरा लगि दूध पिलाय यहाँ।

मात  दुलार  सनेह  हमें,
वसुधा मिल मात मिसाल कहाँ।

मानस  आज  प्रणाम  करें,
धरती बस ईश्वर मात जहाँ। 
 
पूत  सुता  ममता  समता,
करती सम प्रेम दुलार भले।

संतति  के  हित  जीवटता,
क्षमता तन त्याग गुमान पले।

आँचल  काजल  प्यार  भरा,
शिशु  देय पिशाच बलाय टले।

आज  करे  पद  वंदन  माँ,
पद पंथ निशान पखार चले।

पूत  सपूत  कपूत  बने,
जग मात कुमात कभी न रहे।

आतप  शीत  अभाव  घने,
तन जीवन भार अपार सहे।

संत  समान  रही  तपसी,
निज चाह विषाद कभी न कहे।

जीवन  अर्पण  मात  करे,
तब क्यों अरमान तमाम बहे।

✍©
बाबू लाल शर्मा, “बौहरा”
सिकंदरा, 303326

माँ की याद में-

सारा घर
घर के सारे कमरे
अंदर-बाहर सब
खुशबुओं से लिपटा रहता था
तुम्हारे जाने के बाद
बाग है वीरान-सा
खुशबू सब चली गई 
तुम खुशबू थी माँ ।

    2
आंगन के एक कोने पर
तुम चावल से कंकड़ निमारती
तुम्हारे पास ही बाबूजी
पुस्तक लिए कुछ पढ़ रहे होते थे

आंगन के उस कोने पर
बाबूजी आज भी पढ़ते हैं
तुम चली गई
सूपे में रखा है चावल

खाने में जब-जब कंकड़ आता है
तुम याद आती हो माँ ।

      3
तुम्हें सोने के जेवरों से बेहद प्यार था
मेरे सामने ही तुम्हारे देह से
सारे जेवर उतारे जा रहे थे
तुम चुप क्यों थी ?
मना क्यों नहीं की माँ ?

    4
भाई-बहनों में तीसरा हूँ
सबसे छोटा नहीं
फिर भी मुझे 
पूरे घर में ‘छोटू’ कहा जाता है
काश मैं बड़ा होता
पहले पैदा हुआ होता
तुम्हारा साथ मुझे ज्यादा मिला होता माँ ।

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    5
तेरह साल बाद दशहरे में आया था गांव
इस बार भाइयों में कोई नहीं थे
अकेला ही था माँ के पास 

दशहरे की शाम 
पीढ़े पर खड़ाकर
दही का तिलक लगाकर
तूने उतारी थी मेरी आरती
विजय पर्व पर 
छुए थे मैंने तुम्हारे पांव
विजय का दी थी आशीर्वाद
और पाँच सौ के दो नोट

न तुम्हें पता था
न मुझे पता था
कि दशहरे के तीसरे दिन 
तुम चली जाओगी

तुम चली गई
पर विजय कामना और असीस रूप में
साथ रहती हो हमेशा माँ ।

    6
तुम्हारे मृत देह को
चूमा था कई बार
तुम निस्पंद थी

घर के पास 
बाड़ी के पीछे
खेत के मेढ़ पर
अग्नि दी गई थी तुम्हें

तुम राख हो चुकी थी
तीसरे दिन राख के ढेर से
तुम्हारी अस्थियों को बीना था
भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ रहा था
बह रहे थे आँसू मेरे
विश्वास नहीं हो रहा था
कि तुम नहीं हो अब

विश्वास तो अब भी नहीं होता
याद कर उस दिन को
आँखे अब भी भर आती है

जब भी जाता हूँ घर
मेरे कदम ख़ुद ब ख़ुद
चल पड़ते हैं उस जगह
जहां तुम्हारी चिता बनाई गई थी
जहां अग्नि दी गई थी तुम्हें
वहां खड़ा होकर तुम्हें याद करना
तुम्हें महसूस करना अच्छा लगता है माँ ।

– नरेन्द्र कुमार कुलमित्र

माँ की ममता

माँ की ममता का इस जग में मोल नहीं।
तौल सके इस ममता को,वह बना आज तक तौल नही।

रख नौ मास कोख में सुत को,
सौ सौ जतन किया।
प्रसव वेदना सही असनिय,
पुञ को जनम दिया।
उस जननी के लिए कभी कडवे बचन तू बोल नही।।

तौल सके इस…..

जागी रातों में माँ ने पलकों में,
तुझे बिठाया।
खुद गीले में सोकर के तुझे,
सुख की नींद सुलाया।

उस माँ की अमिमय आंखों में,
आँसू कभी तू घोल नही।।

तौल सके इस….

हुआ कभी कष्ट सुत को,
मां व्याकुल हो जाती।
देवी देव मनाया करती,
झर झर अश्रू बहाती।
उस माँ की ममता को कभी,
अंहकार से तौल नही।।

तौल सके इस…..

अपनी रक्त को दूध बनाकर  ,
माँ ने तुझे पिलाया।
खुद भूखी रह अपना निवाला,
माँ ने तुझे खिलाया।
माँ शब्द से बढ़कर.,
जग में दूजा कोई बोल नहीं।।

तौल सके इस….

घूप छाँव से तुझे बचाया,
फूल बिछाये राहों में।
धूल धूसरित था तब भी,
तुझे उठाया बाँहों में।
उस रहबर की राहों में,
आने देना शूल नही।।

तौल सके इस….

पहली बार मुँह खोला तब तू,
माँ शब्द ही बोला।
उँगली पकड़ माँ बाप चलाते,
जब जब था तू ड़ोला।
ईश्वर भी माँ को नमन करे,
इस बात को तू भूल नहीं।।

तौल सके इस ममता को,
वह बना आज तक तौल नही।
तौल सके इस ममता को,वह बना आज तक तौल नही।।।

केवरा यदु मीरा

सब कुछ भूल जाती है माँ

इतनी बड़ी हवेली में
इकली कैसे रहती माँ
बड़ी बड़ी संकट को भी
चुप कैसे सह लेती माँ ।।


कमर झुकी है जर जर काया
फिर भी चल फिर लेती माँ
मुझे आता  हुआ देख कर
रोटी सेक खिलाती माँ ।।


खाँसी आती है माँ को
चादर  मुँह ढक लेती माँ
मेरी नींद न खुल जाए
मुँह बंद कर लेती माँ ।


जब उलझन में होता हूं
चेहरा देख समझती माँ
पास बैठ कर चुपके से
शीश हाथ धर देती माँ ।।


खुद भुनती बुखार में पर
मेरा सिर थपयाती  माँ
गर्म तवे पर कपड़ा रख
छाती सेकती मेरी माँ ।।

कभी न मांगे मुझसे कुछ
जीवन कैसे जीती माँ
थोड़ा थोड़ा बचा बचा कर
मुझे सभी दे देती माँ ।।


किसी बात के न होने पर
चुप हो कर रह जाती माँ
अगले पल लिपट गले से
सब कुछ भूल जाती है माँ ।।


सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर

माँ पर कविता

meri maa
meri maa

ममता मेरी मात की,
है जी स्वर्ग समान।
जिनके चरणों में शीश,
हैं मेरे भगवान।।
मेरे हैं भगवान,
कृपा है मुझपे माँ की।
रखती हरपल ख्याल,
यार सुन मेरे जां की।।
कह कवि “अंचल” मित्र,
और ना ऐसी क्षमता।
माता सबकी पूज्य,
श्रेष्ट है माँ की ममता।।

अंचल

माँ आखिर माँ होती है

जब तुम हंसते वो हंसती है
जब तुम रोते वो रोती है
माँ आखिर माँ होती है।


तुमको भूखा देख न पाए
तुमको प्यासा कभी न छोड़े
तुम संग खेले पीछे दौड़े
तेरे सब नखरे सहती है
माँ  तो आखिर माँ होती है।


गा गा लोरी तुझे सुलाए
करवट बदल कर रात बिताए
तुझको कष्ट न होने देती
गीले पर खुद सोती है
माँ  आखिर माँ होती है।


तेरी खातिर सब सहती है
सारी दुनिया से लड़ती है
तेरी खुशी में  उसकी खुशी
बापू की भी न सुनती है
माँ  आखिर माँ होती है।


सोचो वो न होती
तो तुम न होते
जीवन उसने तुम्हें  दिया है
तुमने उसका रक्त पिया है
ये शरीर पर घमन्ड कैसा
सारा तुमको ऋण मिला है
कर्ज दूध का चुका सको तो
जीवन अपना तार सकोगे
कर्म करो ये गीता कहती है
माँ  तो आखिर माँ  होती है


राकेश नमित

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