मैं हूँ एक छोटी सी मछली- विनोद सिल्ला
भेदभाव
मैं हूँ एक छोटी सी मछली
मैं हूँ एक छोटी सी मछली।
सपनों के सागर में मचली।।
सोचा था सारा सागर मेरा,
ले आजादी का सपना निकली।।
बड़े – बड़े मगरमच्छ वहां थे,
था आजादी का सपना नकली।।
बड़ी मछली छोटी को खाए,
इनका राग इन्हीं की ढफली।।
छोटी का न होता गुजारा,
बड़ी खाती है काजु कतली।।
सिल्ला’ इस सोच में है डूबा,
भेद नहीं क्या असली नकली।।