मैं मजदूर हूं किस्मत से मजबूर हूं

चांद की चाहत मुझमे भी है बहुत
पर हैसियत से बहुत ही लाचार हूं
कमाता रोज हूं जीनेभर के लिए
पर बचा कुछ नहीं पाता मेरे लिए
बस पसीना बहा बहा कर चूर हूं
मैं मजदूर हूं…………………….
लोगों के महल मैं ही सजाता हूं
पर पाप का एक नहीं कमाता हूं
सादा जीवन उच्च विचार लेकर
झोपड़ी में ही जीवन बिताता हूं
लोभ से सदा ही जी मैं चुराता हूं
मैं मजदूर हूं…………………..
मंदिर मस्जिद मै ही तो बनाता हूं
पर मात्र इंसानियत धर्म जानता हूं
पूजा पाठ करता नहीं मैं कभी भी
बस परोपकार करना मैं जानता हूं
इसलिए मैं तुच्छ समझा जाता हूं
मैं मजदूर हूं……………………..
खेतों में फसल को मैं ही उगाता हूं
कीचड़ से लथपथ मैं सन जाता हूं
मिटृटी ही हमारी मां है जानता हूं
इसलिए बेटे का फर्ज निभाता हूं
फिर भी मैं सदा गरीब ही रहता हूं
मैं मजदूर हूं…………………….
मैं भी बहुत ही मेहनत करता हूं
खून पसीना एक कर कमाता हूं
भूखे न रहें जगत में कोई इंसान
इस हेतु निरक्षर ही रह जाता हूं
इसलिए मैं अनाज को उगाता हूं
मैं मजदूर हूं…………………..
जग के हर त्यौहार मैं मनाता हूं
समाज की हर रीत मैं निभाता हूं
साक्षर नहीं पर शिक्षित जरूर हूं
चाहूं तो आसमान भी मैं छू लूंगा
पर सत्य पथ पर चलना चाहता हूं
मैं मजदूर हूं…………………..
क्रान्ति , सीतापुर, सरगुजा छग
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद