मन की लालसा किसे कहे
मन की लालसा किसे कहे

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सच कहुं तो कोई लालसा रखी नहीं
मन की ललक किसी से कही नहीं
क्यों कि
जीवन है मुट्ठी में रेत
धीरे धीरे फिसल रहा
खुशियां, हर्ष, गम प्रेम
इसी से मन बहल रहा।
बचपन की राहे उबड़ खाबड़,
फिर भी आगे बढ़ते रहे,
भेद भाव ना बैर मन में
निश्छल ही चलते रहे।
युवा राह सपाट व समतल
और काया में उबलता खून
हर उलझे कारज करने को
मिलता रहा हौसला- ए- जुनून
अब जीवन की राह ढलान
मन की लालसा किसे कहे
काया भी हो रही थकी
क्या ढलान में चलते रहे।
ये राह देख डरे नहीं
पांव मजबूत करिए
चिंता को धुंए में उड़ा
बेफ्रिक चलते रहिए।
दिल रखो जवां
आनंद लो भरपूर
यही समय है जीने का
लालसा करिए पूर्ण
अभी नहीं उतार की राहें
थाम लो साथी की बांहे
मीठी मीठी सूर ताल में
कट जाएगी ये राहे
धूम मचाओ नाचो खूब
गा लो कोई मधुर गाना
क्योंकि जिन्दगी
एक सफर है सुहाना।
*मधु गुप्ता “महक”*