मधुमासी चौपाइयाँ

शरद शिशिर ऋतु कब के बीते, हाथ प्रकृति के रहे न रीते।
दिनकर चले मकर के आगे, ठंडक सूर्य ताप से भागे।1
बासंती मधुमास महीना, सर्व सुगन्धित भीना- भीना।
घिरा कुहासा झीना-झीना, धरा सजी ज्यों एक नगीना।2
कलियों पर हैं भ्रमर घूमते, ऋतु बसंत को सभी पूजते।
मादकता वन उपवन छाई, आतुरता हर हृदय समाई।3
नये पात आये तरुओं पर, मंजरियाँ सजतीं पेड़ों पर।
मादक गंध नासिका भरती, मन मतवाला मद में करती।4
पुष्प अनेकों प्रतिदिन खिलते, नेह भरे दिल हिलते मिलते।
मद मधुमासी कर मतवाला, बीज नेह का दिल में डाला।5
प्रणय निवेदन की है बेला, मन में स्वप्नों का है मेला।
प्रेम पाश में युगल बँधेंगे, सुखमय जीवन तभी बनेंगे।6
पुष्प खिले चंहुँ ओर छबीले, दिल में भरते भाव रसीले।
फागुन- माघ माह दो उत्तम, तन मन स्वस्थ रहे सर्वोत्तम।7
फागुन की आहट मन पाया, तन मस्ती में मन बौराया।
नशा रंग का सार चढ़ बोले, भंग तरंग भाव हर खोले।8
रंगों का मेला धरती पर, तन पर लगते चढ़ते मन पर।
रास-फाग अब जन जन खेले, लगते हैं खुशियों के मेले।9
ऋतु बसंत सबके मन भाती, ऊर्जित तन सबके कर जाती।
नव भविष्य नव स्वप्न सजायें, सहज कर्म में फिर जुट जायें।10
प्रवीण त्रिपाठी, नई दिल्ली, 14 फरवरी 2019
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद


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