मगर पर कविता
जब तक तारीफ़ करता हूँ
उनका होता हूँ
यदि विरोध में
एक शब्द भी कहूँ
उनके गद्दारों में शुमार होता हूँ
साम्राज्यवादी चमचे
मुझे समझाते हैं
बंदूक की नोक पर
अबे! तेरे समझ में नहीं आता
जल में रहता है
और मगर से बैर करता है
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अच्छा हुआ
वे पहचान गए मुझे
मैं पहचान गया उन्हें
हक़ीक़त तो यही है
न कभी मैं उनका था
न कभी वो मेरे थे।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
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