मजदूर की दशा पर कविता
मजदूर की दशा पर कविता

CLICK & SUPPORT
बंद होते ही काम
खत्म हुआ श्रम दाम
बस इतना था अपराध
भूख को सह न सका
पेट बाँध रह न सका
निकल पड़ा राह में
घर जाने की चाह में
चलता रहा मीलों तक
नदी पहाड़ झीलों तक
पथरीले राह थे कटीले
काँटे कंकड़ थे नुकीले
पगडंडी सड़क रेल पटरी
बीवी बच्चे सर पर गठरी
कभी प्यास कभी भूख
सह सह कर सारे दुःख
कोई दे देता था निवाले
रोक सका न पैर के छाले
कहीं वर्दी का रौब झाड़ते
पीठ कमर पर बेत मारते
दर्द बेजान जिस्म पर सहा
जाना था उफ तक न कहा
चलते चलते पहुँच गया द्वार
कुछ अपने जिंदगी से गए हार
घर में बूढी अम्मा देख देख कर रोई
दूर से निहारते क्या जाने दर्द कोई
मजदूरों पर बात बड़े बड़े
थे अकेले मुसीबत में पड़े
बेत के दर्द से,हम नहीं सो रहे
याद कर पैदल सफर,रो रहे
बच्चों को खूब पढ़ाएँगे
पर मजदूर नहीं बनाएंगे
राजकिशोर धिरही
तिलई,जांजगीर छत्तीसगढ़