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नज़्म – मुझे समझा रही थी वो

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मुझे समझा रही थी वो

बहुत मासूम लहजे में, बड़े नाज़ुक तरीके से
मेरे गालों पे रखके हाथ समझाया था उसने ये
सुनो इक बात मानोगे,
अगर मुझसे है तुमको प्यार,
तो इक एहसान कर देना
जो मुश्किल है,
मेरी ख़ातिर उसे आसान कर देना…
अब इसके बाद दोबारा मुझे न याद आना तुम
अगर ये हो सके तो जान मुझको भूल जाना तुम

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तुम अपना ध्यान रखना वक़्त पे खाना भी खा लेना
कभी इन ख़ूबसूरत आंखों पे आँसू नहीं लाना
बस इतना बोलते ही ख़ुद बहुत रोने लगी पागल..
मैं अपने रोक के आँसू ये सब सुनता रहा खामोश
अगर मैं भी बहाता अश्क़ तो फिर टूट जाती वो..
बहुत मुश्किल से होठों पे मैं इक झूठी हँसी लाया,
मैं उसकी बात सारी मान कर ख़ुद को भी समझाया
कहानी इस तरह से ख़त्म होगी ये
कभी सोचा नहीं था
मगर जो इंतिहाँ सी लग रही थी, इब्तिदा थी
इक नए आफत के आने की..
उसे मालूम था ये सब कभी मैं सह नहीं सकता
के जैसे पेड़ बिन पानी के जिंदा रह नहीं सकता
जो अब आहिस्ता आहिस्ता,
उसी बरसात के ग़म में..
किसी दिन टूट जाएगा,
परिंदों का बसेरा भी,
अचानक छूट जाएगा….

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