नारी तुम प्रारब्ध हो
नारी तेरी आँसु टपके,
और सागर बन जाए।
युगों-युगों से सारी सृष्टि,
तुझसे जीवन पाए।।
***
संस्कार की धानी बन तुम,
करती हो ज्ञान प्रदान।
ममता की थपकी लोरी से,
माँ देती हो वरदान।।
जब भी कोई संकट आया,
छोंड़ के मोह का बन्धन।
अपनें कलेजे के टुकड़े को
इस देश में किया अर्पण।।
इतनें सारे कष्टों कैसे,
तुम अकेले सह जाती हो।
पीकर अपनें सारे आँसु,
बाहर से मुस्काती हो।।
नारी तुम प्रारब्ध हो,
हो अंतिम विश्वास।
तुम्हे छोड़ ना बन पायेगा
कोई भी इतिहास।।
——-स्वरचित—–
उमेश श्रीवास”सरल”
मु.पो.+थाना-अमलीपदर
विकासखण्ड-मैनपुर
जिला-गरियाबंद( छत्तीसगढ़)
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