निषादराज के दोहे
(1) पाषाण
मत बनना पाषाण तू,मन में रखना धीर।
दया धर्म औ प्यार से,बोलो ज्यों हो खीर।।
(2) क्षितिज
दूर क्षितिज पर आसमां,नीला रंग निखार।
जैसे श्यामल गात हो,सुन्दर कृष्ण मुरार।।
(3) वत्सल
माँ का वत्सल है बड़ा,ममता का भण्डार।
सारे जग में हैं नहीं,इनके जैसा प्यार।।
(4) शुभ्र
शुभ्र ज्योत्सना चाँदनी,धवल निखार प्रकाश।
रजनी में प्यारा लगे,शीतलता आभास।।
(5) समीर
शीतल मंद समीर जो,बहती है दिन रात।
मन को आनंदित करे,जैसे हो बरसात।।
(6) सेतु
राम-सेतु लंका बने,जाने सागर पार।
परमवीर हनुमान जी,बाँधे पारावार।।
(7) संगीत
मन गदगद संगीत से, होता मेरे यार।
दुःख-दर्द सब दूर भी,छोड़ चले संसार।।
(8) वारिधि
वारिधि से मिलने चली,नदिया दिन अरु रात।
पिया मिलन की आस में,जैसे करने बात।।
(9) लोचन
लोचन मन में हैं बसे,राम – लखन हैं भ्रात।
नमन करूँ वन्दन करूँ,नित उठकर के प्रात।।
(10) अर्पण
तन अपना अर्पण करूँ,ईश विनय के साथ।
रखना दीनदयाल अब,मेरे सर पर हाथ।।
छंदकार:-
बोधन राम निषादराज”विनायक”
सहसपुर लोहारा,जिला-कबीरधाम(छ.ग.)
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बहुत सुन्दर सर जी