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पितृपक्ष पर कविता – सुकमोती चौहान रुचि

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आया जब पितृपक्ष, बनाते हलवा पूरी |
बड़ा फरा के भोग, बिजौरी भूरी -भूरी ||
उत्सव का माहौल, दशम दिन तक रहता है |
पितर पक्ष का भोग, रोज कागा चखता है ||
घर पर दादी भूख से, देखो अकुलाती रही |
मृतकों को दे भोज सब, दादी मुरझाती रही ||


जीते जी दुत्कार, मृत्य पर रोते धोते |
दिये न रोटी दाल, मृत्यु पर भोज चढ़ाते ||
चलता रहा कुरीत, आँख मूँदे अपनाते |
करते कितने ढ़ोग, हाय फिर भी इठलाते ||
क्यों आडम्बर में बहे, तेरी फितरत यह नहीं |
भोजन भूखे को खिला, पितर तृप्त होंगे वहीं ||


भूलो मत यह बात , आत्म से मानव जागो |
लगे बुरी जो रीत, उसे तत्क्षण ही त्यागो ||
तोड़ दीजिए रीत , करो साहस हे मनुजों |
भूखे को दो भोज, कसम ले लो हे अनुजों ||
कहो करोगे काम यह, छोड़ों काले काग को |
फेंक कुसंस्कृत रीत को, अपना पाक विभाग को ||

सुकमोती चौहान रुचि
बिछिया, महासमुंद, छ. ग.

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