अनिल कुमार गुप्ता अंजुम की कवितायेँ
यहाँ पर अनिल कुमार गुप्ता अंजुम की कवितायेँ दिए जा रहे हैं :-
- मैंने उसे – कविता
- मै बिन पंखों के – कविता
- उतरो उस धरा पर – कविता
- चलने दो जितनी चले आंधियां – कविता
- दीदार का तेरे इन्तजार है मुझको- ग़ज़ल
- अखिल विश्व तेरा गगन हो – कविता
- तिमिर पथगामी तुम बनो ना- कविता
- चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं – कविता
- विजय रथ उसको मिलेगा – कविता
- वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है – कविता
- धरा पर आज भी ईमान बाकी है – कविता
- भँवर – कविता
- कवि हूँ – कविता
- पाप पुण्य – कविता
- सत्य वचन अनमोल वचन- कविता
- जीवन ज्योति जगाऊं कैसे – कविता
- आधुनिकता का दंभ – कविता
- कविता ऐसे करो – कविता

मैंने उसे – कविता
मैंने उसे
किसी का सहारा बनते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की भूख
मिटाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की राह के
कांटे उठाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी का गम
कम करते देखा
मैं बहुत खुश हुआ
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे किसी की
राह के रोड़े उठाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मासूम बचपन को
मैंने उसे मुस्कान बांटते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
मैंने उसे बागों में
फूल खिलाते देखा
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
जीवन को मूल्यों के साथ
जीने को प्रोत्साहित करता वह
मुझे अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
पालने के मासूम से
बचपन के साथ खेलता
उसे खुदा का दर्ज़ा देता वह
मुझे बहुत अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
गिरतों को उठाता
मानवता को पुरस्कृत करता
मानव मूल्यों को संजोता
संस्कारों को बचपन में पिरोता
हर – पल जो हमारे साथ होता
जो किस्सा ए जिंदगी होता
वह मुझे बहुत अच्छा लगा
शायद आपको भी ……….
शायद आपको भी ……….
शायद आपको भी ……….
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
मै बिन पंखों के – कविता
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
नै आसमां से
दुनिया देखना चाहता हूँ
सुना है आसमां से
दुनिया सुन्दर दिखती है
खुली आँखों से
ये नज़ारे लेना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
आसमां में तारे हैं
बहुत से
मै पास जाकर
इनको छूना चाहता हूँ
सुना है चाँद भी
दिखता है निराला
मै चाँद पर जाकर
उसे निहारना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
फूलों की खुशबू ने
किया है मुझको कायल
मै भंवरा बन फूलों का
रस लेना चाहता हूँ
किस्से कहानियों से
मेरा नाता पुराना
मै परी की
कहानी सुनना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
मै कोयल बन
मधुर गीत गाना चाहता हूँ
मै कवि बन जीवन में
रौशनी लाना चाहता हूँ
मै शिक्षक बन
ज्ञान विस्तार करना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
समर्पण की भावना ने
किया मुझको प्रभावित
मै पृथ्वी की तरह
महान बनना चाहता हूँ
देश भक्ति का जज्बा भी
मुझमे कम नहीं है
मै भगत,सुखदेव
और बिस्मिल बनना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
दिखने में छोटा साथ बाती
पर अँधेरे पर है बस उसका
मै अपनी जिंदगी को
दीपों की माला में पिरोना चाहता हूँ
मै दीप बन सबकी जिंदगी को
रोशन करना चाहता हूँ
मै बिन पंखों के
उड़ना चाहता हूँ
मै आसमां से
दुनिया देखना चाहता हूँ
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
उतरो उस धरा पर – कविता
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
खिलो फूल बनकर
जहां खुशबुओं का डेरा हो
चमको कुछ इस तरह
जिस तरह तारे चमकें
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
न्योछावर उस धरा पर
जहां शहीदों का फेरा हो
उतरो उस धरा पर
जहां सत्कर्म का निवास हो
खिलो उस बाग में
जहां खुशबुओं की आस हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
बनाओ आदर्शों को सीढ़ी
खिलाओ जीवन पुष्प
राह अग्रसर हो उस ओर
जहां मूल्यों का सवेरा हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
खिले बचपन खिले यौवन
संस्कारों का ऐसा मेला हो
संस्कृति पुष्पित हो गली- गली
ऐसा हर घर में मेला हो
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
प्रकृति का ऐसा यौवन हो
हरियाली सबका जीवन हो
सुनामी, भूकंप, बाढ़ से बचे रहें हम
आओ प्रकृति का श्रृंगार करें हम
उतरो उस धरा पर
जहां चाँद का बसेरा हो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
चलने दो जितनी चले आंधियां – कविता
चलने दो जितनी चले आंधियां
आँधियों से डरना क्या
मुस्कराकर ठोकर मारो
वीरों मन में भय कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
तूफानों की चाल जो रोके
पल में नदियों के रथ रोके
वीर धरा के पवन पुतले
चलने दो जितनी चले आंधियां
पाल मन में वीरता को
झपटे दुश्मन पर बाज सा
करता आसान राहें अपनी
तुझे हारने का दर कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
भारत माँ के पूत हो प्यारे
लगते जग में अजब निराले
करते आसाँ मुश्किल सारी
तुझे पतन का भय कैसा
चलने दो जितनी चले आंधियां
पड़े पाँव दुश्मन की छाती पर
चीरे सीना पल भर में
थर – थर काँपे दुश्मन
या हो कारगिल , या हो सियाचिन
चलने दो जितनी चले आंधियां
पायी है मंजिल तूने प्रयास से
पस्त किये दुश्मन के हौसले
फ़हराया तिरंगा खूब शान से
नमन तुझे ए भारत वीर
चलने दो जितनी चले आंधियां
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
दीदार का तेरे इन्तजार है मुझको- ग़ज़ल
तू यहीं कहीं आसपास है, ये एतबार है मुझको
मै तुझको ढूंढूं , ऐसी जुर्रत मै कर नहीं सकता
तू हर एक सांस में बसता है , ये एतबार है मुझको
मक्का हो या मदीना, जहां में सब जगह
तेरे नाम का सिक्का है, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
किस्सा-ए-करम तेरा, बयान मै क्या करूं
हर शै में तेरा नाम, हर जुबान पे तेरा नाम
खुशबू तेरा एहसास, ये एतबार है मुझको
पलती है जिंदगी, एक तेरी कायनात में
खिलता है तू फूल बनकर, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
मेरे पिया तेरा करम, तेरी इनायत हो
जियूं तो तेरा नाम, मेरे साथ-साथ हो
मेरा सारा दर्द तेरा, ये एहसास है मुझको
तेरा आशियाना हो, आशियाँ मेरा
तू रहता है साथ मेरे, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
जीता हूँ तेरे दम से, जीता हूँ तेरे करम से
हर एक आह मेरी, करती परेशां तुझको
तू हर दुःख में साथ मेरे, ये एतबार है मुझको
कर दे तू राह आशां, कर दे तू पार मुझको
मरूं तो जुबान पे तू हो, ये एतबार है मुझको
दीदार का तेरे, एतबार है मुझको
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
अखिल विश्व तेरा गगन हो – कविता
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
नरेश सा तू राज करना
हर दिलों में वास करना
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
कोविद सा तू पावन हो
धरा सा तू अचल हो
कांति महके हर दिशा में
सम्पूर्ण धरा तेरा आँचल हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
संघर्ष तेरा कर्मक्षेत्र हो
निर्वाण तेरा अंतिम सत्य हो
सहचर प्रकृति तेरी हो
सरस्वती का तू वन्दनीय हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
महक तेरी चहुँओर फैले
वैरागी सा तेरा जीवन हो
महेश सा रौद्र हो तुझमे
नारद सा तू चपल हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
प्रज्ञा तेरी सहचर बने
पर्वत सा तू अटल हो
नैसर्गिक ऊर्जा हो तुझमे
गजानन वरद हस्त हो तुझ पर
अद्वितीय मनाव बने तू
जगत में तू अमर हो
अखिल विश्व तेरा गगन हो
रत्नाकर सा तेरा जीवन हो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
तिमिर पथगामी तुम बनो ना- कविता
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
अहंकार पथ तुम चरण धरो ना
लालसा में तुम उलझो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
अंधकार में तुम झांको ना
अनल मार्ग तुम धारो ना
निशिचर बन तुम जियो ना
कुटिल विचार तुम मन धारो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
कल्पवृक्ष बन जीवन जीना
शशांक सा तुम शीतल होना
अमृत सी तुम वाणी रखना
अम्बर सा विशाल बनो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
किंचिं सा भी तुम डरो ना
घबराहट को मन में पालो ना
क्लेश वेदना सब त्यागो तुम
पुष्कर सा तुम पावन हो ना
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
द्रव्य वासना तुम उलझो ना
दुर्जन सा हठ तुम पालो ना
सुरसरि सा तुम्हारा जीवन हो ना
पावन निर्मल मार्ग बनो तुम
चीर तिमिर प्रकाश बनो तुम
अलंकार उत्कर्ष वरो तुम
तिमिर पथगामी तुम बनो ना
कानन जीवन तुम भटको ना
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं – कविता
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
मुझको पार लगा देना
गिरने लगूं तो मेरे मालिक
बाहों में अपनी उठा लेना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुष्पक वाहन हों मेरे साथी
पुष्प भी हों मेरे सहवासी
तन को मेरे उजले मन से
जीवन सार बता देना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
ध्यान तेरा हर पहर हो मालिक
मन मंदिर में बस जाना
पुण्य पुष्प बन जियूं धरा पर
मुझको तुझमे समां लेना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुष्प समर्पित चरणों में तेरे
गीता सार बता देना
पा लूं तुझको इस जीवन में
ऐसा मन्त्र बता देना
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
पुण्य कर्म विकसित कर मालिक
चरण कमल श्रृंगार धरो तुम
खिला सकूं आदर्श धरा पर
पूर्ण जीव उद्धार करो तुम
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
चरण कमल तेरे बलि – बलि जाऊं
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
विजय रथ उसको मिलेगा – कविता
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
विजय ध्वज उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
राष्ट्र्पथ पर जो चलेगा
जीत केवल उसकी ही होगी
युद्ध पथ पर जो बढ़ेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जयमाल उसको मिलेगी
संघर्षपथ अग्रसर जो होगा
जयघोष उसकी ही होगी
जो विजयपताका थाम लेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जयघोषणा उसकी होगी
जयपूर्ण कर्म जो करेगा
विजय स्तंभ उसका बनेगा
गौरवपूर्ण जिसका भूतकाल होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
ज़र्रा – ज़र्रा कायल उसका होगा
सारी कायनात पर अहसान जिसका होगा
स्मारक उसका बनेगा
संघर्ष जिसकी पहचान होगी
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जीवनी उसकी लिखेगी
जीवन जिसने जिया होगा
आदर्श जिसकी पूँजी होगी
संकल्प जिसने लिया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जय मंगल गान उसका होगा
जिसने सबका मंगल किया होगा
जयघोष उसकी ही होगी
जो दूसरों के लिए जिया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
जय परायण केवल वो होगा
जिस पर प्रभु का हाथ होगा
जगमगायेगा वही इस धरा पर
जिसने पत्थर को तराशा होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
पायेगा वही जाकर वहाँ कुछ
जिसने यहाँ कुछ खोया होगा
विजय रथ उसको मिलेगा
धर्म पथ जो चलेगा
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है – कविता
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
टीचर आज का टयूटर हो गया है
जनता का रक्षक, भक्षक हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
मानव आज का, दानव हो गया है
सुविचार, कुविचार में परिवर्तित हो गया है
गार्डन अब युवाओं के दिल गार्डन – गार्डन करने लगे हैं
चौराहे – तिराहे लवर पॉइंट बनने लगे हैं
आज का शिक्षक, शिष्या पर लट्टू हो गया है
गुरु – चेले का रिश्ता भ्रामक हो गया है
स्त्रियों की संख्या, पुरुषों से कमतर हो गयी है
सभ्यता लुप्त प्रायः सी हो गयी है
समाज का पतन, देश का पतन हो गया है
चरित्र का पतन, आस्था का पतन हो गया है
लुंगी को छोड़, जीन्स का चलन हो गया है
कपड़े छोटे हो गए हैं तन का दिखावा शुरू हो गया है
लडकियां, लड़कों सी दिखने लगी हैं लड़के, लड़कियों से दिखने लगे हैं
चारों ओर ब्यूटी पार्लर का चलन हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
वर्तमान किस तरह परिवर्तित हो गया है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
धरा पर आज भी ईमान बाकी है – कविता
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो भोपाल त्रासदी देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो सुनामी देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो लातूर का विनाश देख
मन सबका रोता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो म्यामार का आघात देख
मन सबका पसीजा क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो गाजापट्टी में नरसंहार देख
मन सबका व्याकुल होता क्यों
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
यदि ऐसा नहीं होता
तो मंदिरों में भीड़ का
अम्बार नहीं होता
मंत्रोच्चार नहीं होता
मस्जिद में अजान
सुनाई न देती
CHURCH में घंटों की आवाज
सुनाई न देती
गुरुद्वारों में पाठ
सुनाई न देता
मानव के हाथ
दुआ के लिए
न उठ रहे होते
गरीबों का कोई
सहाई न होता
यदि ऐसा नहीं होता
तो धरती पर
कोई किसी की बहिन नहीं होती
कोई किसी का भाई नहीं होता
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
गिरते को कोई
उठा रहा न होता
बहकते को कोई
संभल न रहा होता
ये मानव की नगरी है
यहाँ देवों का वास होता है
ये संतों की नगरी है
यहाँ संतों का वास होता है
धरा पर आज भी
ईमान बाकी है
धरा पर आज भी
इंसान बाकी है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
भँवर – कविता
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
हो रहे हैं
दिन प्रतिदिन आसामाजिक
फिर भी
समाज में रहने का भ्रम
पाले हुए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
हमारी चाहतों ने
हमारी जरूरतों ने
हमें एक दूसरे
से बाँध रखा है
वरना अपने अपने अस्तित्व के लिए
जूझ रहे हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
बंद कर दिए हैं हमने
मंदिरों के दरवाजे
नेताओं के चरणों की
धूल हो गए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
चाटुकारिता से पल्ला
झाड़ा नहीं हमने
चापलूसी का दामन
छोड़ा नहीं हमने
बदनुमा जिंदगी के
मालिक हो गए हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
दर्द दूसरों का बाँटने में
पा रहे हम स्वयं को अक्षम
स्वयं की ही परेशानियों
से परेशान हो रहे हैं हम
चलना हो रहा है दूभर
सहारा किसका बन सकेंगे हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
आये दिन की घटनाओं के
पात्र हो गए हैं हम
सामाजिक अशांति के चरित्र हो
जी रहे हैं हम
जीने की भयावहता में
राह भटके जा रहे हैं हम
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
आस है उस पल की
जो आशां कर दे
सारी राहें
ले चले इस
अनैतिक व्यवहार से दूर
आँचल में अपने समेटे
सभी दुःख दर्द
जीने की राह दे
जीवन को अस्तित्व दे
मार्ग प्रशस्त कर
दूसरों के लिए जीने की लालसा जगा
ताकि कोई भी ये न कह सके
ये किस भँवर में
आ फंसे हैं हम
किनारे की आस तो है
पर किनारा मिलता नहीं है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
कवि हूँ – कविता
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
करोगे वाहवाही कविताओं की झड़ी लगा दूंगा
डूबते बीच मझदार को पार लगा दूंगा
कविता करना मेरा कोई सजा नहीं है
बुराइयों से बचाकर तुझे सजा पार करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
कविता की ताकत को तुम क्या जानो
तुमने किया सजदा तो सर कटा दूंगा
उठाई जो तलवार तुमने प्रेम का पाठ पढ़ा दूंगा
की जो प्रेम की बातें सीने से लगा लूँगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
प्रकृति मेरा प्रिय विषय रही है
हो सका तो चारों और फूल खिला दूंगा
सुंदरता की तारीफ की बातें न पूछो मुझसे
हो सका तो इसे नायाब चीज बना दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
जीता हूँ में समाज की बुराइयों में
लिखता हूँ कवितायें तनहाइयों में
अपराध बोध बुराइयों पर कर प्रहार
एक सभ्य समाज का निर्माण करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
सभ्यताओं ने किया कवि दिल पर प्रहार
दिए नए नए जख्म नए नए विचार
विचारों की इन नई श्रंखला में भी
जीवन अलंकार करा दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
कवि हमेशा जिया है दूसरों के लिए
कवि हमेशा लिखता है समाज के लिए
दिल से बरबस आवाज ये निकलती है
हे मानव जीवन तुम सब पर वार कर दूंगा
कवि हूँ कवि की गरिमा को पहचानो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
पाप पुण्य – कविता
पाप पुण्य के चक्कर में
मत पड़ प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
परिणाम की चिंता में
नींद हराम मत कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन बहती धारा का
नाम प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
आत्मा पवित्र कर
परमात्मा में लीन हो प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
सद्चरित्र धरती पर
जीतता हर मुकाम है
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
निराशा के झूले में
झूलना मत प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
योग का आचमन कर
आत्मा को पुष्ट कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन बहती नदी है
विश्राम न कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
मन है चंचल पर
आत्मा पर अंकुश
लगा प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीना है इस धरा पर तो
पुण्यमूर्ति बन प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
सत्कर्मीय एवं पूजनीय को
परमात्मा दर्शन देते प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
जीवन लगाम कस
अल्लाह को सलाम कर प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
बंधनों के मोह में
तू न पड़ प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
शांत स्वभाव और
मृदु वचन बोल प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
निर्बाध तू बढ़ा चल
भक्ति का आँचल पकड़
जीवन राह विस्तार कर ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
साँसों की डोर की मजबूती का
कोई भरोसा नहीं है
उड़ सके तो भक्ति के आसमां में
उड़ ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
अधर्म की राह छोड़
धर्म पथ से नाता जोड़
किस्मत अपनी संवार ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
छूना है आसमां और पाना है
उस पुण्यमूर्ति परमात्मा को
जीवन को अपने कर्म पथ पर
निढाल कर ले प्यारे
कर्म कर कर्म कर
कर्म कर ले प्यारे
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
सत्य वचन अनमोल वचन- कविता
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन मुखरित हो जब पुष्प खिला जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म प्रेरणा स्रोत जब बन जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन सत्य राह जब निर्मित कर जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म परम कर्म जब हो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन परम धर्म जब बन जाता हैं
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब सामाजिकता पा जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव मुक्ति साधन हो जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब पाप कर्म को धो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव मन पर छा जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब धर्म प्रेरित कर्म बन जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन जब मानव का तारक हो जाता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म कब हो जाता है
सत्य कर्म जब मानव कल्याण हित हो जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन कब हो जाता है
सत्य वचन साधारण को असाधारण कर जाता है
सत्य वचन अनमोल वचन हर पल होता है
सत्य कर्म अनमोल कर्म हर छण होता है
मानव पूर्ण तभी होता है
जब वह दोनों के सत्संग होता है
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे – कविता
कैसे करूँ तेरा अभिनन्दन
कैसे करूँ मैं कोटि वंदन
निर्मल नहीं है काया मेरी
शीतल नहीं हुआ मन मेरा
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
निर्मल नीर कहाँ से लाऊं
कैसे तेरे चरण पखाऊँ
तामस होता मेरा तन मन
निर्जीव जी रहा हूँ जीवन
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
अमृत वचन कहाँ से पाऊं
कैसे तेरी स्तुति गाऊं
सूरज बन चमकूँ मै कैसे
चंदा बन चमकूँ मैं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
आँगन मेरा तुम बिन सूना
अधीर हो रहे मेरे नयना
निश्चल समाधि पाऊं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
उत्कर्ष मेरा होगा प्रभु कैसे
बंधन मुक्त रहूँगा कैसे
पीड़ा मन की दूर करो तुम
असह्य मेरा दर्द हरो तुम
जीवन ज्योति जगाऊं कैसे
नैतिकता की राह दिखा दो
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
आधुनिकता का दंभ – कविता
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
टेढ़ी मेढ़ी पगडण्डी पर
चल रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
वस्त्रों से हमें क्या लेना
चिथडो पर जी रहे हैं हम
मंत्र सीखे नहीं हमने
गानों से जी बहला रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
पुस्तकें पढ़ना हमें
अच्छा नहीं लगता
इन्टरनेट मोबाइल से
दिल बहला रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अति महत्वाकांक्षा ने हमको
कहाँ ला खड़ा किया है
अपराध की अंधी दुनिया मे
जिंदगी ढूंढ रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
सत्कर्मो से हमें
हमें करना क्या
बेशर्मो की तरह जिंदगी
जिए जा रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अर्थ के मोह ने
हमें व्याकुल किया है
तभी अपराध की शरण
हो रहे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
आवश्यकताएं रोटी कपडा और मकान से
ऊपर उठ चुकी हैं
कहीं जमीर कहीं तन
कही सत्य बेचने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
शक्ति और धन की उर्जा का
दुरपयोग करने लगे हैं हम
गिरतों को और नीचे गिराने
ऊंचों को और ऊँचा उठाने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
हमारे पागलपन की हद तो देखो
मानव को मानवबम बना रहे हैं हम
जानवरों की संख्या घटा दी हमने
आज आदमी का शिकार करने लगे हैं हम
आधुनिकता का दंभ भर
जी रहे हैं हम
अब तो संभलो यारों
अनैतिकता से दूरी रख जीवन संवारो यारों
आधुनिकता की अंधी दौड से बहार आओ यारों
चारों और इंसानियत और मानवता
का मन्त्र सुनाओ यारों
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
कविता ऐसे करो – कविता
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
अक्षरों से शब्द बनें विचार अलंकार हो जाए
विचार हों ऐसे कि बुराई शर्मशार हो जाए
मिले समाज को नए विचार कि हर एक कि जिंदगी गुलजार हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
छोड़ो तीर शब्दों के कुविचारों पर कि धरा पुण्य हो जाए
मिटा दो आंधियां मोड़ दो रास्ते तूफानों के जिंदगी पतवार हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
बहा दो ज्ञान की गंगा मिटा अँधियारा भीतर का
कि जीवन जगमग हो जाए
रहे न कोई अछूता ज्ञान गंगा से कि जीवन पवित्र संगम हो जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
मिटाकर बुराई को,
मिटा मन के अँधेरे को
कि ज़िन्दगी आशा का दीपक हो जाए
बनो ऐसे बढ़ो ऐसे रहो ऐसे
कि आसमां से तारे फूल बरसाएं
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
करो शब्दों के प्रहार छोड़ो शब्दों की बौछार
कि ज़िन्दगी काँटों के बीच फूल कि मानिंद हो जाए
जियो ऐसे धरा पर बनो ऐसे धरा पर
कि खुदा भी जन्नत छोड़ धरा पर
तुझे आशीर्वाद देने आ जाए
तुझे गले लगाने आ जाए
कविता ऐसे करो की मन की कल्पना साकार हो जाए
– अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”