पुरूष सत्ता पर कविता- नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
पुरूष सत्ता पर कविता
लोग कहते रहे हैं
महिलाओं का मन
जाना नहीं जा सकता
जब एक ही ईश्वर ने बनाया
महिला पुरुष दोनों को
फिर महिला का मन
इतना अज्ञेय इतना दुरूह क्यों.. ?
कहीं पुरुषों ने जान बूझकर
अपनी सुविधा के लिए
तो नहीं गढ़ लिए हैं
ये छद्म प्रतिमान !
क्या सचमुच पुरुषों ने कभी
समझना चाहा है स्त्रियों का मन ..?
अपनी अहंवादी सत्ता के लिए
पुरुषों ने गढ़े फेबीकोल संस्कार
बनाएं नैतिक बंधन
सामाजिक दायरे
करने न करने के नियम
और पाबंदिया कई
हमने कहा—
“तुम बड़ी नाज़ुक हो।”
वह मान गई
अपनी कठोरता
अपनी भीतरी शक्ति जाने बिना
ताउम्र कमज़ोर बनी रही
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हमने कहा—
“तुम बड़ी सहनशील हो।”
वह मान गई
बिना किसी प्रतिवाद के
पुरुषों की उलाहनें
शारीरिक मानसिक अत्याचार
जीवनभर सहती रही चुपचाप
हमने कहा—
“तुम बड़ी भावुक हो।”
वह मान गई
वह अपनी पीड़ा को कहे बिना
भीतर ही भीतर टूटती रही रोज़
जीवनभर बहाती रही आँसू
हमने कहा—
“तुम बड़ी पतिव्रता हो।”
वह स्वीकार कर ली
वह प्रतिरोध करना छोड़ दी
हमारी राक्षसी कृत्यों
बुराईयों को करती रही नजरअंदाज
पूजती रही ताउम्र ईश्वर की तरह
हमने कहा—
“तुम बड़ी विनम्र हो।”
वह स्वीकार ली
हमारी बातों को पत्थर की लकीर मान
बिना किसी धृष्टता किए
बस मौन ताउम्र ढोती रही आज्ञाएँ
पुरुषों ने बड़ी चालाकी से
सब जानते हुए समझते हुए
षडयंत्रों का जाल बनाकर
खूबसूरत आकर्षक शब्दों के चारे डाल
जाल बिछाता रहा-फँसाता रहा
बेवकूफ शिकार सदियों से
फँसती रही-फँसती रही-फँसती रही।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479