राक्षस दहन पर कविता
समाज में रहने वाले राक्षस का दहन करें
राक्षस दहन पर कविता

हाँ मैं रावण हूँ, मैं ही हूँ रावण।
मेरा अस्तित्व है चिर पुरातन।
हूं मैं प्रगल्भ,प्रकाण्ड,
मेरी गूँज से हिले पूरा ब्रह्मांण्ड।
मेरा मन निर्मल ,मुझ में है अपार बल,
चारित्रसंपन्नता में मैं उज्जवल ।
मुझको दहन कर पाते राख,
पर क्या सोचा कितनी पवित्र है मेरी साख।
गृह,भवनों में छिड़कते तुम,
दिव्य बनाते मुझको तुम।
पर नहीं राक्षस मैं मानव जैसा,
कैसे समझाऊँ मैं था कैसा?
देख मन में होता हाहाकार ,
शीघ्र करो तुम इनका संहार।
इनको फूँको तुम रावण नाम से,
मुक्त करो इस धरा को राक्षसों के काम से ।
हर अबला नारी हारी,
राक्षसों के कुकर्म की मारी
मारों,फूँको, दहन करो तुम,
राक्षस जाति को नष्ट करो तुम,
मेरा दहन कर मत गर्व करो तुम,
दहन करो राक्षसों का तब दंभ भरो तुम।
माला पहल ‘मुंबई’