ब्रजधाम पर कविता

श्री राधाकृष्ण
श्री राधाकृष्ण

मधुवन काटा जा रहा, रोता है ब्रजधाम।
गूँगी गाएँ गोपियाँ, छोड़ गए जब श्याम ।।

कालिंदी कलुषित हुई, क्रंदन करे कदंब।
नंद नहीं,आनंद में, आहत यशुदा अंब।।

घर,आँगन,पनघट,गली,और दुखी हर द्वार ।
पीपल,बरगद,नीम की,खोई कहाँ कतार ।।

वृद्ध आम को याद है, कोयलिया की कूक।
अमरैया कलकंठिनी,मुरझाई मन,मूक।।

तुलसी के भी प्राण में, उग आए हैं घाव।
झुलसाते वो दीप हैं, जो जलते बिन भाव।।

रामायण गाता नहीं,है चुप-चुप चौपाल।
बिना बाँसुरी,गाय के, गाँव हुआ गोपाल ।।

अति बारिश,अति धूप से, शस्यश्यामला दीन।
रोटी का सपना मिला,रोटी हुई विलीन।।

कल का अपना घर हुआ, अनजाना परदेश ।
विगत हुआ विश्वास तो,है बाकी बस क्लेश ।।

आयु प्रतीक्षारत हुई, नाथ हुई अब देर।
प्राण लगाते जा रहे,त्राहि -त्राहि का टेर।।

—- रेखराम साहू —-


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