सबसे बड़ा प्रैंकर: मनीभाई नवरत्न

manibhai
मनीभाई नवरत्न

सबसे बड़ा प्रैंकर : मनीभाई नवरत्न

ये जो छूटती है
हंसी की झरने लबों से ।
हो सकती है स्वास्थ्यवर्धक ,
पर नहीं कह सकते
ये फूटी होगी प्राकृतिक ।

पर इसमें दोष नहीं है ,
अवतरण जो हुआ तेरा
ऐसे भयानक कृत्रिम जग में।

कभी-कभी सोचता हूँ
झूठा नहीं था प्लेटो।
जो कहता था ये दुनिया मिथ्या है,
उससे भी बनावटी यहाँ के लोग।

अब समय ने,
एक कदम दूर और,
झूठ की ओर बढ़ाया है ।
अब कला की ही,
होने लगी हैं कलाकारियां ,
जिसे पहले परोसा जाता
सत्य के थाल में सजाकर।
और हमारे भ्रम से
पेट भर जाता है उनका।

इधर रह जाती है
तन की आग,
अधुरा का अधुरा।
जब कभी खबर होती है,
अपने संग हुए छलावे का ।
दे दिया जाता है
पुनः दूसरा व्यंजन,
ताकि हम लगे रहे
सदा पेट के पीछे।

पर अब जब सतर्क हूँ ,
शक की ढाल लेके ।
तब बोल दिया गया मुझे
भाई !! ये तो प्रैंक हैं।
फिर फुट पड़ती है लबों में झरने
अब कैसे कह सकते हो कि
ये हँसी नहीं कृत्रिम ??

ये प्रैंक नहीं,
एक बाज़ार है।
सौदा है आपकी भावनाओं का,
समय का, अर्थ का।
उनका ही नहीं ,
जो हो रहे हैं भ्रम का शिकार
अपितु जो मूकदर्शक भी है।
खो रहे हैं लगातार
प्राकृतिक हँसी,
जिसका प्रवाह होता
बाह्य नहीं,
अपितु आंतरिक ,
बिना अवरोधों के ।

ये ऐसी लुट है
जहाँ सब बने लुटेरे ,
गिरते हैं , गिराते हैं ,
बेवकूफ बन हँसते हैं,
बेवकूफ बना हँसाते हैं।
कमजोर रोते हैं ,
ताकतवर काली कमाई कर जाते हैं।

ये कैसे जग की कल्पना?
जहाँ हम तय ना कर सकें
सत्य- असत्य वर्गीकरण।
कौवों ने तो,
काले कर दिए हैं हंसो को,
जो हो सकते थे ,
नीर-क्षीर विवेकी।

अब गूगल सद्गुरू हो गये,
वीडियो एप्प बन गये,
संजय की दिव्य दृष्टि ।
नंबर वन बनने की होड़ में,
दौड़ते लगातार मिडिया
जिसकी ध्यान में है
कौवों की झुण्ड,
चूँकि निर्णायक वही है,
जिससे मिलेगी रोटी ,
अहम् भाव की रोटी

वाहवाही।
पर सत्य के पुजारियों को,
क्या मिलेगा ???

अरे भाई !!
ये दुनिया प्रैंक की बस्ती है,
जो इतनी घनी बस गयी
कि धंस गयी
सच का घर।
जो उजाड़ सा, परित्यक्त दिख रहा
आलिशानों बंगलों के बीच,
जहाँ पर रहना,
हमारे सपनों की सूची में ,
नहीं है शामिल।
सर चकरा गया है अब तो,
सच प्रैंक है, या प्रैंक सच।
कृत्रिम भावना से गर
सब कृत्रिम लगे तो,
हो सकता है
वही सत्य हो।

अब नहीं सहज आनंद,
हमारे लबों को लत हो गई,
हँसी के लिये,
किसी की शर्मदींगी,
किसी की निंदा,
किसी के दिल में उठती पीड़ा।
यांत्रिक सूचना,
जो सत्य से कोसों दूर
हमें ला खड़ा कर दिया
गोल बाज़ार में।
जहाँ हम गोल गोल घूमते हुए,
देखते रहे बहुरूपियों के
नित नूतन तमाशे।
पर मैं किसी एक को,
दोषीदार नहीं ठहराता।
वैसे भी यह,
गोलाकार की रचना
मानवीय देन नहीं है।
धरा को गोल बनाकर
पर्दे के पीछे बैठा है,
सबसे बड़ा प्रैंकर।

( रचयिता : मनीभाई नवरत्न , २२ अप्रैल 2020)

6 Comments
  1. बाबू लाल शर्मा बौहरा says

    बहुत सुंदर
    उत्तम सृजन
    विस्तृत विवेचन यथार्थ का

    1. अर्चना पाठक निरंतर says

      बहुत सुन्दर सृजन

  2. Anonymous says

    बहुत खुब!

  3. चंद्रिका चौधरी says

    बहुत खुब!???

  4. Chandan says

    अहा! पर्दे के पीछे बैठा है सबसे बड़ा प्रैंकर..?

    1. Anonymous says

      चालाकियों से भरी दुनियां पर तीखा व्यंग्य है कविता में।बधाई।

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