विधवा पर कविता

सफेद साड़ी में लिपटी विधवा
आँसुओं के चादर में सिमटी विधवा
मनहूस कैसे हो सकती है भला

अपने बच्चों को वह विधवा
रोज सबेरे जगाती है
उज्जवल भविष्य कीf करे कामना
प्रतिपल मेहनत करती है
सर्वप्रथम मुख देखे बच्चे
सफलता की सीढ़ी चढ़ते हैं
समझ नहीं आता फिर भी
मनहूस उसे क्यूँ कहते हैं

बेटी के लिए ढूँढें वर वह
शादी का जोड़ा लाती है
बिंदी, चूड़ी, सिंदूर भी वह
स्वयं खरीद कर लाती है
अखंड सुहाग की करे कामना
बेटी का ब्याह रचाती है
हाथों से अपने करे विदा
फिर भी मनहूस कहलाती है

बिंदी, चूड़ी, रंगीन वसन से
वह पहले भी सजती थी
बिछुवा, सेंदुर, कालिपोत
शादी के बाद उसे मिली थी
रहा नहीं सुहाग सही है
सुहाग निशानी बस उतरेंगी
बिंदी, चूड़ी, रंगीन वसन तो
वह पहले से पहनी थी
परंपराओं के नाम पर
प्रतिपल मरती स्त्री थी

धिक्कार है ऐसी छोटी सोच पर
थू-थू ऐसे इंसानों पर
नियति के क्रूर सितम के आगे
वह नतमस्तक हो रोती है
कर ना सको यदि दुःख कम उसका
ऐसे ताने भी तुम मत दो
नियति की नियति क्या जानो
आज है उसकी कल अपनी मानो

हाथ जोड़कर करूँ प्रार्थना
हे समाज के ठेकेदारों
थोड़ा आगे बढ़कर देखो
सुंदर सपनों को गढ़ कर देखो
कर ना सको सहयोग अगर तुम
ताने देकर दिल ना तोड़ो
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वर्षा जैन “प्रखर”
दुर्ग (छत्तीसगढ़)


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