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स्त्री की व्यथा – विजिया गुप्ता समिधा

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स्त्री की व्यथा

beti mahila
स्त्री की व्यथा

वह भी एक स्त्री थी।
उसकी व्यथा,
मुझे ,मेरे अंतर्मन को,
चीरकर रख देती है।
टुकड़े-टुकड़े हो बिखर 
जाती है,मेरे अंदर की नारी।
जब महसूस करती है ,
उसकी वेदना ।
कितना कुछ सहा उसने,
भिक्षा में मिले सामान की तरह,
बांटी गयी।
समझ नहीं पाती 
मेरे अंदर की स्त्री,
कि यह,उसे उसकी तपस्या 
से मिला वरदान था।
या, कुछ और…?

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इतना ही नहीं,
चौपड़ के निकृष्ट
दाँव-पेच के बीच ,
बिछा दी गयी वह
बिसात की तरह।
लगा दी गयी दाँव में,
किसी सामान की तरह।
और भरी सभा में ,
सभी कथित विद्वजनों के बीच,
जिस धृष्टता से 
बाल पकड़कर ,
घसीटती लाई गयी।
और लज्जित की गयी।
उस समय सभा में उपस्थित
सम्मानीय जनों की चुप्पी,
क्या आपके हृदय में 
शूल की तरह नहीं चुभती…?
उस समय एक नारी की
पीड़ा से ,आपका हृदय
तार-तार नहीं होता…. ?

ये कैसा सामाजिक परिवेश,
जहाँ एक औरत 
अपने घर में ही 
भरी सभा के बीच भी,
सुरक्षित नहीं।

एक परिहास,
और उसके द्वारा कहे गए
कुछ अनुचित शब्दों की 
इतनी बड़ी सजा…?

विजिया गुप्ता “समिधा”
दुर्ग -छत्तीसगढ़
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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