कविता प्रकाशित कराएँ

तृष्णा पर कविता

तृष्णा कुछ पाने की
प्रबल ईच्छा है
शब्द बहुत छोटा  है
पर विस्तार  गगन सा है।
अनन्त
नहीं मिलता छोर जिसका
शरीर निर्वाह की होती
आवश्यकता
पूरी होती है।

किसी की सरल
किसी  की कठिन
ईच्छा  भी पूरी होती है।
कभी कुछ कभी कुछ
पर तृष्णा  बढती जाती
पूरी नहीं होती।

तृष्णा परिवार की
तृष्णा धन की
तृष्णा सम्मान की
तृष्णा यश  की।

बढती लाभ संग
दिखाती अपना रंग
छाती अंधड़ बन
आती तूफान  सी
बढती जाती बाढ सी
बढाती जोड़ तोड़
आपाधापी और होड़
हरती  मन की शान्ति
बढाती जाती  क्लान्ति।

मानव  को बनाती
लोभी, लालची, ईर्ष्यालु
बढाती असंतोष प्राप्त से
बढाती लोभ अप्राप्यका
   परिणाम
झूठ ,कपट ,झगड़ा, फसाद
बनते संघर्षों  के इतिहास
बचना चाहिए इससे
चलकर  संतोष की राह।

पुष्पा शर्मा”कुसुम”


Posted

in

by

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *