ये भी मनुस्मृति की देन है( ye bhi manusmriti ki den hai)
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तथाकथित उच्च वर्ग
जवाब मांग रहा है निम्न वर्ग से –
“रे अछूत!
तुझे लज्जा नहीं आती
आरक्षण के दम पर इतरा रहा है ,
हमारे हक का खा रहा है
तेरी औकात क्या ?
तेरी योग्यता क्या ?
भूल गया अपना वर्चस्व ।
लांघ दी तूने ,
मनुस्मृति की लक्ष्मण रेखाएं ।
संविधान कवच ने
तुझे उच्छृंखल कर दिया है।
पैरों की दासी !
अपने पैर में खड़ा होने की
कोशिश मत कर,
हिम्मत है तो द्वन्द्व कर ।
आरक्षण का बाना हटाके
मुझसे शास्त्रार्थ कर।”
व्यंग्य बाणों से जख्मी
तथाकथित दलित ने प्रत्युत्तर दिया –
“हे उच्चकुलीन श्रेष्ठ !
तू ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ है
तेरे श्रीमुख से कुटिल बातें
शोभा नहीं देती ।
तूने कहा कि जातियां जन्मजात है
हमने मान लिया।
फिर कहा प्रत्येक जाति के वर्ग है
हमें स्वीकार लिया।
जनसेवा करके
अपना सौभाग्य माना
नवनिर्माण कर ,
जग का श्रृंगार किया
अति प्राचीन ,
भारतीय संस्कृति को आधार दिया।
तूने सामाजिक नियमों में बांधा
जी भर शोषण किया ।
कभी धर्म ,कभी ईश्वर का भ्रम
फैला कर भयभीत किया ।
नियम तूने लचीला रखें ,
जब अपनी स्वार्थ पूरी करनी थी
हमने जब सीमाएं तोड़ी
तो नर्क का दंड विधान किया
खुशकिस्मत हैं
जो बाबा ने संविधान बनाया
दलित अपने विकास के लिए
एक अवसर को पाया ।
कष्ट तुम्हें इस बात की है कि
हमने ज्ञानामृत चखा
वर्षों से छीना गया
अधिकार को परखा ।
आज तुम्हें तकलीफ क्यों ?
हम क्यों सेवाक्षेत्र में आरक्षित हैं
तो सुन कुलश्रेष्ठ !
सेवाक्षेत्र शूद्र के लिए हो,
ये भी मनुस्मृति की देन है।”
मनीभाई ‘नवरत्न’, छत्तीसगढ़
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