CLICK & SUPPORT

अपनापन पर कविता

अपनापन पर कविता

अपनापन ये शब्द जहां का
होता सबसे अनमोल
प्यार नेह से मिल जाता
संग जब हों मीठे बोल।

अपनापन यदि जीवन में हो
हर लम्हा रंगे बहार
अपने ही गैर बन जाएं तो
ग़म का दरिया है संसार।

अपनेपन की अभिलाषी थी
मैं अपनों की भीड़ में
समझ न पाया मर्म मेरा कोई
बह गई मैं इस पीर में।

अपनों ने ही बदल रखी है
अपनेपन की परिभाषा
स्वार्थ बेरुखी संगदिल है
छोड़ दी अपनेपन की आशा।

सम्बंधित रचनाएँ

कौन है अपना कौन  पराया
दिल ये समझ न पाया
तेरा मेरा अहं प्रबल  है
मैंने क्या खोया क्या पाया।

जिनको हमने अपना माना
वक़्त पर बदल गए हैं
फरेब प्रपंच मिला है उनसे
जख्मों से झुलस रहे हैं।

अपने ही गैर बने फिरते हैं
उम्मीद क्यों अपनेपन की
स्नेह तलाश में भटक रहे हैं
कस्तूरी ज्यों मृग अंतसमन की।

जीवन पथ पर मैंने अपनों  की
बेरुखी का आलम देखा है
प्रगाढ़ रिश्तों के बंधन को
भग्नावशेष में देखा है।

यदि अपनापन झोली में होता
जीवन परिताप समझ पाते
रंजो ग़म की स्याही में
शायद न यूं हम बह पाते।

कुसुम लता पुंडोरा
आर के पुरम
नई दिल्ली

CLICK & SUPPORT

You might also like