लालसा पर कविता
जो कभी खत्म ना हो,
रोज एक के बाद एक,
नई इच्छाओं का जन्म होना,
पाने की धुन बनी रहती है, लालसा
सबको खुश रखने तक,
सपनों को पूरा करने तक,
कब चैन की सांस लेंगे,
अंधेरों से उजालों तक,
कभी तो चैन मिलेगा ,
पर ये लालसा बढ़ती रहती है,
तुमसे कुछ कहूं
कब सुनोगे मेरी बात,
कुछ तुम्हें बताना है,
ये लालसा बनी रही,
कभी आसमान को छू लूं,
कभी चांद को पकड़ लूं,
हजारों सपने दब गये,
क्या कहें हम आपसे ,
क्या सुनेंगे और कब समझेंगे
लालसा ही रह गई,
पल-पल समय घट रहा है,
रेत की तरह फिसल रही ,
जिंदगी।
एक के बाद एक हजारों सवाल है,
कैसे पूरा करेंगे हिसाब,
मांग रही है जिंदगी,
कैसे बताएं बहुत मुश्किल है,
बस लालसा ही रह गयी।
स्वरचित पूनम दुबे अम्बिकापुर छत्तीसगढ़