जिगर मुरादाबादी की शायरी

जिगर मुरादाबादी (असली नाम: अली सिकंदर) उर्दू शायरी के मशहूर शायरों में से एक थे। उनकी शायरी में गहरी भावनाओं और प्रेम की झलक मिलती है। जिगर मुरादाबादी की ग़ज़लें और शेर आज भी शायरी प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय हैं। उनकी शायरी में इश्क़, दर्द, और ज़िन्दगी के अनुभवों का सुंदर चित्रण मिलता है। यहाँ कुछ उनके मशहूर शेर प्रस्तुत हैं:

जिगर मुरादाबादी की शायरी

जिगर मुरादाबादी के कुछ प्रसिद्ध शेर:

  1. “कहाँ मय और कहाँ वाइज़, मगर ऐ दोस्त, ये कह दो, कि वो कूचा, वो गलियां, अब तक याद आती हैं।”
  2. “दिल ग़म से जल चुका था बुरी तरह जिगर, अब शमा बुझ रही थी कि परवाना आ गया।”
  3. “आगही में भी चैन महरूमी, वो ही हालात हैं बुरे, अच्छे।”
  4. “बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं, तुझे ऐ ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।”
  5. “दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को, वर्ना ताअत के लिए कुछ कम न थे कर्रो-बयां।”
  6. “न थी हालात की परवाह, न था दुनियाँ का कोई ग़म, मुक़द्दर जागने से पहले हम पत्थर के सनम थे।”
  7. “हुस्न वालों को सज़ा क्यूँ दूँ कि मैं दानिश्वर, आप ही अपना ख़ुंजर सा पड़ा करता हूँ।”
  8. “मेरे जैसा कोई ज़िन्दगी की तुझसे उम्मीद रखे, यही बात ग़ज़ल बन जाए, यही बात ख़ुशी दे जाए।”

जिगर मुरादाबादी के बारे में:

जिगर मुरादाबादी का जन्म 6 अप्रैल 1890 को मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। वे मुख्य रूप से अपने रोमांटिक और भावनात्मक शेरों के लिए जाने जाते हैं। उनकी शायरी में इश्क़ और ग़म का मिलाजुला अंदाज़ देखने को मिलता है। उन्हें उर्दू शायरी में एक नया मोड़ देने का श्रेय भी दिया जाता है।

जिगर मुरादाबादी का प्रभाव उर्दू साहित्य पर बहुत गहरा रहा है, और उनकी ग़ज़लें और शेर आज भी प्रेमियों के दिलों में बसे हुए हैं। उनका साहित्यिक योगदान उन्हें उर्दू के महान शायरों की श्रेणी में रखता है।

जिगर मुरादाबादी की शायरी

इक लफ़्ज़-ए-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़, फ़ैले तो ज़माना है

हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हंसने को ज़माना है

ये इश्क़ नहीं आसां, बस इतना समझ लीजे
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है

वो हुस्न-ओ-जमाल उन का, ये इश्क़-ओ-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है, मरने का ज़माना है

अश्क़ों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है

क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की, ठोकर में ज़माना है

या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे
कल उनका ज़माना था, आज अपना ज़माना है