राष्ट्रीय एकता दिवस पर कविता (19 नवम्बर)

हम सब भारतवासी हैं

निरंकारदेव ‘सेवक’

हम पंजाबी, हम गुजराती, बंगाली, मदरासी हैं,

लेकिन हम इन सबसे पहले केवल भारतवासी हैं।

हम सब भारतवासी है !

हमें प्यार आपस में करना, पुरखों ने सिखलाया है,

हमें देश-हित, जीना मरना पुरखों ने सिखलाया है।

हम उनके बतलाये पथ पर, चलने के अभ्यासी हैं।

हम बच्चे अपने हाथों से, अपना भाग्य बनाते हैं,

मेहनत करके बंजर धरती से, सोना उपजाते हैं !

पत्थर को भगवान् बना दें, हम ऐसे विश्वासी हैं!

वह भाषा हम नहीं जानते, बैर-भाव सिखलाती जो,

कौन समझता नहीं, बाग में बैठी कोयल गाती जो ।

जिसके अक्षर देश-प्रेम के, हम वह भाषा-भाषी है!

एकता अमर रहें

ताराचंद पाल ‘बेकल’

देश है अधीर रे!

अंग-अंग-पीर

वक़्त की पुकार पर,

उठ जवान वीर रे !

दिग्-दिगंत स्वर रहें !

एकता अमर रहें !!

एकता अमर रहें !!

गृह कलह से क्षीण आज देश का विकास है,

कशमकश में शक्ति का सदैव दुरुपयोग है।

हैं अनेक दृष्टिकोण, लिप्त स्वार्थ साध में,

व्यंग्य-बाण-पद्धति का हो रहा प्रयोग है।

देश की महानता,

श्रेष्ठता, प्रधानता,

प्रश्न है समक्ष आज,

कौन, कितनी जानता ?

सूत्र सब बिखर रहें !

एकता अमर रहें !!

एकता अमर रहें !!

राष्ट्र की विचारवान शक्तियां सचेत हों,

है प्रत्येक पग अनीति एकता प्रयास में ।

तोड़-फोड़, जोड़-तोड़ युक्त कामना प्रवीण,

सिद्धि प्राप्त कर रही है धर्म के लिबास में।

बन न जाएं धूलि कण,

स्वत्व के प्रदीप्त-प्रण,

यह विभक्ति-भावना,

दे न जाएं और व्रण,

चेतना प्रखर रहें !

एकता अमर रहें !!

एकता अमर रहें !!

संगठित प्रयास से देश कीर्तिमान् हो,

आंच तक न आ सकेगी, इस धरा महान् को।

शत्रु जो छिपे हुए हैं मित्रता की आड़ में,

कर न पाएंगे अशक्त देश के विधान को ।

पन्थ हो न संकरा,

उर्वरा, इसलिए उठो, बढ़ो !

जगमगाएंगे धरा,

हम सचेत गर रहें !

एकता अमर रहें !!

एकता अमर रहें !!

ज्योति के समान शस्य-श्यामला चमक उठें,

और लौ-से पुष्प-प्राण-कीर्ति की गमक उठें।

यत्न हों सदैव ही रख यथार्थ सामने,

धर्मशील भाव से नित्य नव दमक उठें ।

भव्य भाव युक्त मन,

अरु प्रत्येक संगठन,

प्रण, प्रवीण साध लें,

नव भविष्य- नींव बन,

दृष्टि लक्ष्य पर रहें !

एकता अमर रहें !!

भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

अटलबिहारी वाजपेयी

एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते

पर स्वतन्त्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा

अगणित बलिदानों से अर्जित यह स्वतन्त्रता

अश्रु, स्वेद, शोणित से सिंचित यह स्वतन्त्रता

त्याग, तेज, तप बल से रक्षित यह स्वतन्त्रता

प्राणों से भी प्रियतर अपनी यह स्वतन्त्रता ।

इसे मिटाने की साज़िश करने वालों से

कह दो चिनगारी का खेल बुरा होता है।

औरों के घर आग लगाने का जो सपना

अपने ही घर में सदा खरा होता है।

अपने ही हाथों तुम अपनी कब्र न खोदो

अपने पैरों आप कुल्हाड़ी नहीं चलाओ

ओ नादान पड़ोसी अपनी आँखें खोलो

आजादी अनमोल न उसका मोल लगाओ।

पर तुम क्या जानों आज़ादी क्या होती है।

तुम्हें मुफ़्त में मिली न कीमत गई चुकायी

अंग्रेजों के बल पर दो टुकड़े पाये हैं

माँ को खण्डित करते तुमको लाज न आई।

अमरीकी शस्त्रों से अपनी आज़ादी को

दुनिया में कायम रख लोगे, यह मत समझो

दस बीस अरब डालर लेकर आने वाली

बरबादी से तुम बच लोगे, यह मत समझो।

जब तक गंगा की धारा, सिंधु में तपन शेष

स्वातंत्र्य समर की बेदी पर अर्पित होंगे

अगणित जीवन, यौवन अशेष ।

अमरीका क्या, संसार भले ही हो विरुद्ध

काश्मीर पर भारत का ध्वज नहीं झुकेगा,

एक नहीं, दो नहीं, करो बीसों समझौते

पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा।

एकता गीत

माधव शुक्ल


मेरी जां न रहें, मेरा सर न रहें

सामां न रहें, न ये साज रहें !

फकत हिंद मेरा आजाद रहें,

मेरी माता के सर पर ताज रहें !

सिख, हिंदू, मुसलमां एक रहें,

भाई-भाई-सा रस्म-रिवाज रहें !

गुरु-ग्रंथ वेद- कुरान रहें,

मेरी पूजा रहें और नमाज रहें !

मेरी जां न रहें….

मेरी टूटी मड़ैया में राज रहें,

कोई गर न दस्तंदाज रहें !

मेरी बीन के तार मिले हों सभी,

इक भीनी मधुर आवाज रहें !

ये किसान मेरे खुशहाल रहें,

पूरी हो फसल सुख-साज रहें !

मेरे बच्चे वतन पे निसार रहें,

मेरी माँ-बहनों की लाज रहें !

मेरी जां न हो…

मेरी गायें रहें, मेरे बैल रहें

घर-घर में भरा सब नाज रहें !

घी-दूध की नदियां बहतीं रहें,

हरष आनंद स्वराज रहें !

माधों की है चाह, खुदा की कसम,

मेरे बादे बफात ये बाज रहें !

खादी का कफन हो मझ पड़ा,

‘वंदेमातरम्’ अलफाज रहें !

कोई गैर नहीं

कोई नहीं है गैर !

बाबा! कोई नहीं है गैर !

हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई

देख सभी हैं भाई-भाई

भारतमाता सब की ताई,

मत रख मन में बैर !

बाबा ! कोई नहीं है गैर !

भारत के सब रहने वाले,

कैसे गोरे, कैसे काले ?

हिंदू-मुस्लिम झगड़े पाले,

पड़ गए जिससे जान के लाले,

काहे का यह बैर !

बाबा ! कोई नहीं है गैर !

राम समझ, रहमान समझ लें,

धर्म समझ, ईमान समझ लें,

मसजिद कैसी, मंदिर कैसा ?

ईश्वर का स्थान समझ लें,

कर दोनों की सैर !

बाबा ! कोई नहीं है गैर !

सोचेगा किस पन में बाबा !

क्यों बैठा है वन में बाबा !

खाक मली क्यों तन में बाबा !

ढूँढ़ लें उसको मन में बाबा !

माँग सभी की खैर !

बाबा ! कोई नहीं है गैर !

कोई नहीं है गैर !

बाबा ! कोई नहीं है गैर !

भू को करो प्रणाम

जगदीश वाजपेयी

बहुत नमन कर चुके गगन को, भू को करो प्रणाम !

भाइयों, भू को करो प्रणाम !

नभ में बैठे हुए देवता पूजा ही लेते हैं,

बदले में निष्क्रिय मानव को भाग्यवाद देते हैं।

निर्भर करना छोड़ नियति पर, श्रम को करो सलाम।

साथियों, श्रम को करो सलाम !

देवालय यह भूमि कि जिसका कण-कण चंदन-सा है,

शस्य – श्यामला वसुधा, जिसका पग-पग नंदन-सा है।

श्रम- सीकर बरसाओ इस पर, देगी सुफल ललाम,

बन्धुओं, देगी सुफल ललाम !

जोतो, बोओ, सींचो, मेहनत करके इसे निराओ,

ईति, भीति, दैवी विपदा, रोगों से इसे बचाओ ।

अन्य देवता छोड़ धरा को ही पूजो निशि-याम,

किसानों, पूजो आठों याम !

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