कवि पंख हुए विस्तृत – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

kavita

कवि पंख हुए विस्तृत – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

कवि पंख हुए विस्तृत
हुए विस्तृत हुए व्यापक
सोच बदली बदले नियम
विषय हुए विस्तृत हुए व्यापक

करवटें बदलती सभ्यता
करवटें बदलता समाज
विकृत होती मानसिकता
उबाल पर काम का प्रभाव

संस्कार उभरे रूढ़ीवादी विचार बन
संस्कृति उभरी मनोरंजन का स्वर बन
सद्विचारों का प्रभाव दिख रहा
पनप रहा मनचलापन

अजीब सा बहाव है
पसार रहा पाँव है
पुण्य छीण हो रहे
विलासिता का भाव है

धर्म पर अधर्म की मुहर
सत्य आज असहाय है
चीख – चीख पुकारती
मानवता आज है

फूलों से खुशबू खो रही
अंगडाई आंसू – आंसू रो रही
नेत्र हुए विकराल हैं
सतीत्व को न छाँव है

देवालय शून्य में झांकते
मानव इधर उधर भागते
अस्तित्व का पता नहीं
कि राह किधर है कहाँ

कि पुण्यात्मा कहैं किसे
कि मस्तक चरण धरें किसे
कि मोड़ जीवन का है ये कैसा
कि अब गिरे कि कब गिरे

शून्य में हम झांकते
रोशन दीये के तले
कि कैसा ये बहाव है
न कोई आसपास है

कि अंत का पता नहीं
कि अगले पल कि खबर नहीं
फिर भी मोहपाश है
कि टूटता नहीं कि छूटता नहीं

नव विचार कर रहे विव्हल
कि चूर – चूर ये जवानियाँ
प्रयोग दर प्रयोग बढ़
मिटा रहे निशानियां

कि हाथ तेरे कुछ न तेरे है
कि हाथ कुछ न मेरे है
कि हम भागते तुम भागते
कि हम भागते बस भागते

कि सुकून न मिल रहा यहाँ
क्या चैन मिलेगा वहाँ
कि दो पल को रुक सकूँ खुदा
कि खुद की खोज कर सकूं

कि राह दिखलाना मुझे
कि पनाह में अपनी तू ले मुझे
कि मै गिरूं तो तू संभाल ले
हो सके तो तू करार दे

कवि पंख हुए विस्तृत
हुए विस्तृत हुए व्यापक

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *