काँटों में राह बनाते हैं
सच है विपत्ति जब आती है
कायर को ही दहलाती है
सूरमा नहीं विचलित होते
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं।
काँटों में राह बनाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में
टिक सके आदमी के मन में,
खम ठोंक ठेलता है जब नर
पर्वत के जाते पाँव उखड़,
मानव जब जोर लगाता है।
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो
वर्तिका बीच उजियाली हो,
बत्ती जो नहीं जलाता है।
रोशनी नहीं वह पाता है।
-रामधारी सिंह ‘दिनकर’