अटल कश्यप की हिन्दी कवितायेँ
सैक्स-वर्कर
चश्मा इंसानियत का चढ़ाकर
एक सैक्स-वर्कर को टटोला था,
छल्ले धुँए के उड़ाते और
हलक से शराब के घूँट उतारते
अपने दर्द को
मेरे सामने उड़ेला था,
पसीजा था मेरा कलेजा भी
उसकी कहानी सुनकर
मजबूरियों ने उसे
दलदल में धकेला था,
थे उसे भी
जिदंगी से शिकवे-शिकायतें
पर चेहरें पर
फीकी हँसी को ओढ़ा था,
पूँछा जब मैने उससे यूँही
है देह व्यापार गंदा
क्यों हाथ इसमें डाला था,
पैसा कमाने के दूसरे पहलू पर
क्यों विचार नहीं आया था,
था उसका तर्क सटीक
धीरे से कह डाला था,
करते रहे शरीर का सौदा
जब जमीर बेचकर
पैसा कमाते
हुजूम नजर आया था।
सीटी
सीटी की आवाज
नश्तर सी
चुभ जाती थी,
छोटे शहर की बेटी
जब
घर से स्कूल जाती थी,
थे उसके कुछ सपने
जिन्हें पूरा करने के लिए
घर की दहलीज से
पांव निकालती थी,
थे गली में
डेरा जमाये
कुछ आवारा शोहदे,
जिनके निशाने पर
वह नजर आती थी,
था रोज का आलम
जुमले और अश्लील इशारों का,
नजरअंदाज करने की
मजबूरी चेहरे पर
उसके झलक जाती थी,
टूट चुकी थी पूरी
विरोध जताने में
वह
असमर्थ नजर आती थी,
न था उसका
कोई दोष,
पर वह
अब फोटो में
नजर आती थी,
बजती है सीटी
गली में आज भी,
फिर कोई बेटी
सपनों को अपने
समेटते दिख जाती है।
कन्या भ्रूणहत्या
अहिंसा परमो धर्मा
और
जियो और जीने दो
के नारे
बेमानी हो जाते है,
जब कन्या के गर्भ में आते ही
भ्रूणहत्या पर उतारू हो जाते है,
हर एक बेटी गर्भ में सहम जाती है
जब वह नौ माह भी जी नहीं पाती है,
चिंता की लकीरें चेहरे पर खिच जाती है
जब लिंग परीक्षण में
कन्या की पुष्टि हो जाती है,
फिर एक बार लिंगानुपात में
कमी की तैयारी शुरू हो जाती है,
डॉक्टर से साठगांठ करके
कोख सूनी हो जाती है,
मानवता की हदें पार हो जाती है
गांव से शहर तक यही कहानी
लिखी जाती है,
काश इस पटकथा को
हम सब मिलकर रोक दे,
बेटे-बेटी का मोह छोड़कर
कुदरत और किस्मत पर छोड़ दे।
एसिड अटैक
क्यों मेरा आईना मुझे रूलाता है
चेहरे पर पड़े नकाब को देखकर
अक्सर मुझे चिढ़ाता है,
हर शख्स
मुझे देखकर ठिठक जाता है
पास आने से भी वो कतराता है,
फिर चेहरे के सूखे जख्मों को देखकर
मन के जख्मों को हरा कर जाता है,
मन भी रोज ही
अतीत में गोते लगा जाता है,
मेरी सुंदरता के कसीदे पढ़नेवाला
वह शख्स रोज ही याद आता है,
उसके प्रेम-प्रस्ताव को खारिज करके
एसिड-अटैक का घटनाक्रम
आँखों में घूम जाता है,
मेरी जिदंगी के सुनहरे अध्याय
तब से काले-स्याह हो गए,
रोज तिल-तिल मरते
कई साल हो गए,
रोज एक ही कानफोड़ू आवाज
मुझे सुनायी आती है,
मेरा देश बदल रहा है
आगे बढ़ रहा है,
सुनकर मुझे यह लगता है
क्या, नारी के प्रति लोगों का
रवैया भी बदल रहा है?
पापा की पाती मुनिया के नाम
मुनिया तुम दुनियाॅ में आ रही हो
रोज ही मेरे दिल की धड़कनें बढ़ा रही हो,
तुम्हारे जनम से ही दुनियाँ
मुझे जिम्मेदारी का अहसास करायेगी,
छोरी जनी है, यह कहकर
तुम्हारी माँ की कोख भी दुखाएगी,
नवरात्रि के कन्या-भोज में
तुम्हारी पूछ-परख बढ़ जायेगी,
बाकी दिनों में बेटे-बेटी के तराजू में
तुमको हल्का दिखायेगी,
सयाने होते ही लंपट दुनियाॅ
तुम्हारे इर्द-गिर्द लक्ष्मण-रेखा बनायेगी,
तुम्हारी परवरिश और शिक्षा के खर्च को
मुझे नफा रहित निवेश के तर्क देते दिख जायेगी,
मैं भी समाज में असहाय भीष्म जैसा कुलबुलाऊंगा
अपनी मुनिया को
मानव-मन की मलीनता से कैसे बचाऊंगा,
काश, कोई ऐसा अभियान भी चल जाये
हर मानव-मन की मलीनता स्वच्छ हो जाये
तो हर इक पापा की मुनिया भी
किलकारी भरती इस दुनियाॅ में आये।
काॅपी-कवर
समझ रहे है बच्चे
आज के हमको
पुराना काॅपी-कवर,
उतार फेंकना
हमको चाह रहे है,
देखकर हमारी सलवटें
भददेपन से
मुक्त होना चाह रहे है,
खुद को स्वतंत्र
बिना कवर के
उन्मुक्त होना चाह रहे है,
पर शायद नहीं जानते
बिना कवर के
काॅपी टिक नहीं पायेगीं,
हकीक़त की खरोंचों से
खुद को कैसे बचाएगी,
थी अब तक
सहेजने की जिम्मेदारी
जिस कवर पर,
बिना कवर के
काॅपी की नियति,
बिखरे पन्नों में
दर्ज हो जाएगी।
आर्थिक मंदी
आर्थिक-मंदी की आंधी जब आती है
नौकरीपेशा लोगों की मुसीबत
काफी हद तक बढ़ जाती है,
कहीं मेरा नंबर न आ जाये
यही चिंता बार बार मन में सताती है,
होता है गुणा-भाग
अंदर ही अंदर जिम्मेदारियों का,
कटौती निजी जरूरतों में करनी पड़ जाती है,
करते हैं यार-दोस्तों से जिक्र और मंथन
पर राह कोई नज़र न आती है,
वक्त की करवट में साॅसों से ज्यादा
फिर नौकरी को तवज्जों दी जाती है,
पर अंत में
नौकरी भी बेवफा निकल जाती है,
जब हाथ में तीन माह की एडवांस सैलरी
और टर्मीनेशन-लेटर की काॅपी
कंपनी उन्हें थमाती हैं।
किरदार पिता का
पदवी पिता की
यूँही नहीं मिल जाती है,
बनता है जब कोई पिता
तब यह बात समझ में आती है,
तुल जाते हैं ज़िम्मेदारियों की तुला पर
परिवार और बच्चों को
भनक भी नहीं लग पाती हैं,
कहलाते हैं
त्याग और सादगी की मिसाल,
एक जोड़ी चप्पल और
दो जोड़ी कपड़ो में जिदंगी
उस शख्सियत की गुजर जाती है,
रहते हैं पिता भी परेशां
पर परिवार और बच्चों को
भनक भी नहीं लग पाती हैं,
होता है कठिन किरदार पिता का
बालों की सफेदी यही बतलाती है,
बिना पिता के
एक बच्चे की दुनियाॅ
शून्य सी हो जाती है ।
वृद्धाश्रम
यूज़ एंड थ्रो का चित्र
आँखों के सामने आया,
जब वृद्धाश्रम में
एक माँ-बाप को पाया,
सुदूर गगन में उड़ती पतंग से
डोर का साथ छूटता पाया,
जिन माँ-बाप के पैरों को छूते ही
लंबी उम्र का आशीष पाया,
उन्ही पैरों को
वृद्धाश्रम की दहलीज पर पाया,
जीवन की ढलती साँझ पर
अपनों ने क्या रंग दिखाया,
अपने ही घर से पराया कर
बेघर कर डाला,
जिस वटवृक्ष की छाँव पायी
जिन की ऊँगली पकड़कर
जीवन की राहें बनायीं,
उसी वटवृक्ष को उजाड़ दिया
दौलत और जायदाद की लालसा ने
माँ-बाप होकर भी
खुद को अनाथ दिखा दिया,
आयुष्मान भवः और
दूधो नहाओ, पूतो फलो का
आशीष आज भी
उनका मन बारम्बार देता है,
फिर भी बच्चों को
यह समझ नहीं आता है,
अपनी जड़ों से कटकर
पौधों का अस्तित्व मिट जाता है,
फिर किसी वृद्धाश्रम में
आगे के लिए
हमारा नाम भी लिख जाता है ।
बेटी
अम्माॅ, भैया को काजल लगाती हो,
मुझको ऑख दिखाती हो,
मैं और भैया जन्में तुमसे
फिर यह भेदभाव क्यों जताती हो,
भैया जब पैदा हुआ तो
बटी खूब मिठाई थी,
और जब मैं पैदा हुई तो
बस खामोशी ही छाई थी,
भैया को दुनियादारी सिखाती हो
मुझको दुनिया की ऊॅचनीच बताती हो,
मैं जब घर से बाहर का सोचूं
तो लड़के-लड़की का अंतर सुनाती हो,
मुझे पराया धन कहती हो
भैया को कुलदीपक बुलाती हो,
मुझे लज्जा का पाठ सिखाती हो
भैया की उछंर्खलता पर खुश हो जाती हो,
अम्माॅ, लगता है
तुम्हारी ममता का बंटवारा हो गया,
बेटी हूँ शायद
इसलिए ममता का हिस्सा कम आ गया।
अटल कश्यप
F-4, Golden Crest Apartment
Infront of Global Park city
Katara Hills, Bhopal-462043
Bahut badhiya. 👌👌 Aapki kavita se sacchai jhalakti hai.. Keep it up👍👍👍✍✍🙏