मई महाराणा प्रताप जयन्ती 9 मई को मनाई जाती है, महाराणा प्रताप एक महान पराक्रमी और युद्ध रणनीति कौशल में दक्ष थे। महाराणा प्रताप ने मुगलों के बार-बार हुए हमलों से मेवाड़ की रक्षा की। जिनका जन्म जन्म 9 मई 1540 को राजस्थान के मेवाड़ में हुआ था ये एक ऐसे राजा थे जिनकी ख्यति विश्व प्रसिद्द है.
9 मई महाराणा प्रताप जयन्ती पर कविता
किसके लिये उठीं बन्दूकें
● श्यामनारायण पांडेय
किसके लिए उठीं बंदूकें, आँखों में क्यों अरुणाई।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही, बाँहों में भर अँगड़ाई ||
सागर से गंभीर बने तुम, सुनने की कुछ चाह नहीं,
महापर्व की कौन घड़ी यह, जिसकी रुकती राह नहीं,
पाँवों में ऐसी गति जिसको, छू न सके निज परछाईं ।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥१॥
तोपों से अभिवादन कर, रणचंडी का पूजन होगा,
लेने को वरदान विजय का, शीशों से अर्जन होगा,
महासमर का पर्व आ गया, हमें न अब रोको भाई ।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥२॥
तुझे न प्यारे बेटी-बेटे, तुझे न अपनी माँ प्यारी,
चिर सहचरी उदास तुम्हारी, जिसकी सूनी फुलवारी,
ममता खड़ी निराश सिसकती कैसी तेरी निठुराई ।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. 11311
‘सब हैं प्यारे, वतन हमारा हमको सबसे प्यारा हैं,
आया, उस धरती पर संकट जिसने हमें सँवारा है,
जो सबकी माँ है माता है, दुश्मन ने आँखें दिखलाईं।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥४॥
जीवन की सारी आशाएँ, छोड़ सभी अरमान चले,
प्राणों का कुछ मोह नहीं, करने जिसको बलिदान चले,
भय की इस भीषण वेला में, मन में क्यों खुशियाँ छाईं ।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥५॥
आशा के मृगजल के पीछे, क्यों प्यासा रह प्राण गँवाएँ,
क्यों न वीरता की वेदी पर, हँसते हुए अमर हो जाएँ,
आज स्वर्ग का द्वार खुला है, स्वयं मुक्ति लेने आई।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. ॥६॥
‘सब हैं प्यारे, वतन हमारा हमको सबसे प्यारा हैं,
आया, उस धरती पर संकट जिसने हमें सँवारा है,
जो सबकी माँ है माता है, दुश्मन ने आँखें दिखलाईं।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥४॥
जीवन की सारी आशाएँ, छोड़ सभी अरमान चले,
प्राणों का कुछ मोह नहीं, करने जिसको बलिदान चले,
भय की इस भीषण वेला में, मन में क्यों खुशियाँ छाईं ।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही… ॥५॥
आशा के मृगजल के पीछे, क्यों प्यासा रह प्राण गँवाएँ,
क्यों न वीरता की वेदी पर, हँसते हुए अमर हो जाएँ,
आज स्वर्ग का द्वार खुला है, स्वयं मुक्ति लेने आई।
कहाँ चले तुम वीर सिपाही…. ॥६॥
सैनाणी
मेघराज ‘मुकुल’
सैनाणी पड्यो हथळेवै रो, हिंगळू माथै में दमकै ही ।
रखड़ी फेरां री आण लियां गमगमाट करती गमकै ही ।
कांगण-डोरो पूंचे मांही, चुड़लो सुहाग लै सुघड़ाई ।
चुंदड़ी रो रंग न छूट्यो हो, था बंध्या रह्या बिछिया थांई।
अरमाण सुहाग-रात रा ले, छत्राणी महलां में आई।
ठमकै सूं ठुमक ठुमक छम-छम, चढ़गी महलां में सरमाई।
पोढ़ण री अमर लियां आसा, प्यास नैणां में लियां हेत ।
चूंडावत गठजोड़ो खोल्यो, तन-मन री सुध-बुध अमिट मेट।
पण बाज रहीं थी सहनाई, महलां में गूंज्यो संखनाद ।
अधरों पर अधर झुक्या रह ग्या, सरदार भूल ग्यो आलिङ्गन ।
रजपूती मुख पीळो पड़ग्यो, बोल्यो, ‘रण में नहिं जाऊंला ।
राणी! थारी पलकां सहळा, हूं गीत हेत रा गाऊंला ।’
‘आ बात उचित है की हद तक, ब्या’ में भी चैन न ले पाऊं ?
मेवाड़ भलां क्यूं हो न दास, हूं पण में लड़ण नहीं जाऊं ।’
बोली छत्राणी, ‘नाथ! आज थे मती पधारो रण मांही।
तलवार बताद्यो, हूं जासूं, थे चूड़ो पैर रैवो घर मांही।’
कह, कूद पड़ी झट सेज त्याग, नैणां मैं अगनी झमक उठी।
चंडी रो रूप बण्यो छिण में, बिकराळ भवानी भभक उठी।
बोली, ‘आ बात जचै कोनी, पति नै चाहूं मैं मरवाणो ।
पति म्हारो कोमळ कूंपळ सो, फूलां सो छिण में मुरझाणो ।
पैल्यां की समझ नहीं आई, पागल सो बैठ्यो रह्यो मूर्ख ।
पण बात समझ में जद आई, हो गया नैण इकदम्म सुर्ख ।
बिजली सी चाली रग-रग में, वो धार कवच उतस्यो पोड़ी।
हुङ्कार ‘बम-बम महादेव’, ‘ठक-ठक-ठक-ठपक’ बढ़ी घोड़ी ।
पैल्यां राणी नै हरख हुयो, पण फेर ज्यान सी निकल गई।
काळजो मूंह कानी आयो, डब डब आंखड़ियां पथर गई।
उन्मत सी भाजी महलां में, फिर बीच झरोखां टिक्या नैण ।
बारै दरवाजै चूंडावत, उच्चार रह्यो थो वीर-बैण ।
आंख्यां सूं आंख मिळी छिण में, सरदार वीरता बिसराई ।
सेवक नैं भेज रावळे में, अन्तिम सैनाणी मंगवाई।
सेवक पहुंच्यो अन्तःपुर में, राणी सूं मांगी सैनानी ।
राणी सहमी फिर गरज उठी, बोली, ‘कह दै मरगी राणी।’
फिर कह्यो, ‘ठहर! लै सैनाणी’, कह झपट खङ्ग खींच्यो भारी।
सिर कट्यो हाथ में उछळ पड्यो, सेवक भाज्यो ले सैनाणी ।
सरदार ऊछळ्यो घोड़ी पर, बोल्यो, ‘ल्या-ल्या-ल्या सैनाणी।’
फिर देख्यो कट्यो सीस हंसतो, बोल्यो, ‘राणी ! मेरी राणी !’
‘तूं भली सैनाणी दी राणी ! है धन्य धन्य तू छत्राणी !
हूं भूल चुक्यो हो रण-पथ नै, तू भलो पाठ दीन्यो राणी !’
कह एड़ लगाई घोड़ी कै, रण बीच भयङ्कर हुयो नाद ।
केहरी करी गर्जन भारी, अरि-गण रै ऊपर पड़ी गाज ।
फिर कट्यो सीस गळ में धारयो, बेणी री दो लट बांट बळी ।
उन्मत्त बण्यो फिर करद धार, असपत्त फौज नै खूब दळीं ।
सरदार विजय पाई रण में, सारी जगती बोली, ‘जय हो !’
‘रण- देवी हाड़ी राणी री, मां भारत री जय हो ! जय हो !’
दिन पूरा बीत गया था
o आचार्य मायाराम ‘पतंग’
दिन पूरा बीत गया था संध्या की वेला आई।
शैशव रोदन धरता था गम खाती थी तरुणाई ।।
कुछ मिला नहीं खाने को, जठरागिन जरा बुझ पाती।
बालक बालिका बिलखते रह रहकर भूख सताती ॥
रवि अस्त हुआ अंबर में निर्द्वद्व तिमिर गहराया।
स्वातंत्र्य सूर्य ग्रसने को राहू ने मुँह फैलाया ॥
सेनानी समरांगण के थे भटक रहे वन-वन में।
सहने की शक्ति असीमित संकल्प लिये जीवन में ॥
दो मीन कहीं जंगल से बथुआ बटोर कर लाए।
पीसा गूँथा रानी ने दो मोटे रोट बनाए ।
सेंके फिर जैसे-तैसे जल के बल से सरकाए ।
जंगली बिलाव झपटकर बच्ची के ऊपर आया ।।
वह बिफर- बिफर कर रोई लेकिन वह हाथ न आया।
महाराणा का मस्तक भी यह दृश्य देख चकराया ||
पर्वत की छाती पिघली नयनों में जल भर आया ।
राणा की देह कुलिश में करुणा अंकुर उग आया ||
यह जीवन भी क्या जीवन रोटी को बिटिया तरसी ।
राणा प्रताप की आँखें, उस बेवस पल में बरसी ॥
स्वातंत्र्य धर्म है मेरा संघर्ष मुझे करना है।
शिशुओं की तड़पन देखूँ इससे बेहतर मरना है ।
फिर सोचा क्यों ना में भी आसान पंथ अपनाऊँ ?
मुगलों की सत्ता मानूँ वैभव की महिमा गाऊँ ।।
रानी ने देखा राणा, दुविधा में जूझ रहे हैं।
माया-ममता में डूबे सत्पथ को भूल रहे हैं ॥
हे प्राणनाथ परमेश्वर विनती मैं यही सुनाऊँ ।
दासता न झेलूँ पल भर, प्राणों की भेंट चढ़ाऊँ ।
दाने-दाने को तरसें बच्चे भूखे मर जाएँ ।
आजादी की राहों से पग पीछे नहीं हटाएँ ॥
पातळ’र पीथळ
अरै घास री रोटी ही जद बन बिलावडो ले भाग्यो ।
नान्हो सो अमरयो चीख पड्यो राणा रो सोयो दुख जाग्यो ।
हूं लड्यो घणो हूं सह्यो घणो
मेवाड़ी बचावण नै,
मान हूं पाछ नहीं राखी रण में
बैरयां रो खून बहावण में,
जद याद करूं हळदी घाटी नैणां में रगत उतर आवै,
सुख दुख रो साथी चेतकड़ो सूती सी हूक जगा ज्यावै,
पण आज बिलखतो देखूं हूं
जद राज कंवर नै रोटी नै,
तो क्षात्र धरम नै भूलूं हूं
भूलूं हिंदवाणी चोटी नै
मैंलां में छप्पन भोगा जका मनवार बिना करता कोनी,
सोनै री थाळ्यां नीलम रै बाजोट बिना धरता कोनी,
औ हाय जका करता पगल्या
फूलां री कंवळी सेजां पर,
बै आज रुळै भूखा तिसिया
हिंदवाणै सूरज रा टाबर,
आ सोच हुई दो टूक तड़क राणा री भीम बजर छाती,
आंख्या में आंसू भर बोल्या मैं लिख स्यूं अकबर नै पाती,
पण लिखूं किंयां जद देखे है आडावळ ऊंचो हियो लियां,
चित्तौड़ खड्यो है मगरां में विकराळ भूत सी लियां छियां,
मैं झुकूं कियां ? है आण मनै
कुळ रा केसरिया बानां री,
मैं बुझं किंयां ? हूं सेस लपट
आजादी रै परवानां री,
पण फेर अमर री सुण बुसक्यां राणा रो हिवड़ो भर आयो,
मैं मानूं हूं दिल्लीस तनै समराट् सनेसो कैवायों ।
राणा रो कागद बांच हुयो अकबर रो सपनूं सो सांचो,
पण नैण कस्यो बिसवास नहीं जद बांच बांच नै फिर बांच्यो,
कै आज हिंमाळो पिघळ बह्यो
कै आज हुयो सूरज सीतळ,
कै आज सेस रो सिर डोल्यो
आ सोच हुयो समराट् विकळ,
बस दूत इसारो पा भाज्या पीथळ नै तुरत बुलावण नै,
किरणां रो पीथळ आ पूग्यो ओ सांचो भरम मिटावण नै,
र्बी वीर बांकुड़ै पीथळ नै
रजपूती गौरव भारी हो,
बो क्षात्र धरम रो नेमी हों
राणा रो प्रेम पुजारी हो,
बैरयां रै मन से कांटो हो बीकाणूं पूत खरारो हो,
राठौड़ रणां में रातो हो बस सागी तेज दुधारो हो,
आ बात पातस्या जाणै हो
घावां पर लूण लगावण नै,
पीथळ नै तुरत बुलायो हो
राणा री हार बंचावण नै,
म्हे बांध लियो है पीथळ सुण पिंजरे में जंगळी शेर पकड़,
ओ देख हाथ से कागद है तूं देखां फिरसी किया अकड़ ?
मर डूब चळू भर पाणी में
बस झूठा गाल बजावै हो,
पण टूट गयो बीं राणा रो
तूं भाट बण्यो बिड़दावै हो,
मैं आज पातस्या धरती से मेवाड़ी पाण पगां में है,
अब बता मनै किण रजवट रै रजपूती खून रंगां में है ?
जब पीथळ कागद ले देखी
राणा री सागी सैनाणी,
नीवै स्यूं धरती खसक गई
आंख्यां में आयो भर पाणी,
पण फेर कही ततकाल संभळ आ बात सफा ही झूठी है,
राणा री पाघ सदा ऊंची राणा री आण अटूटी है।
ल्यो हुकम हुवै तो लिख पूछूं
राणा ने कागद रे खातर,
लै पूछ भलाई पीथळ तूं
आ बात सही बोल्यो अकबर,
म्हे आज सुणी है नाहरियो
स्याळां रे सागै सोवैलो,
म्हे आज सुणी है सूरजड़ो
बादळ री ओटा खोवैलो,
म्हे आज सुणी है चातगड़ो
धरती रो पाणी पीवैलो,
म्हे आज सुणी है हाथीड़ो
कूकर री जूणां जीवैलो,
म्हे आज सुणी है थकां खसम
अब रांड हुवैली रजपूती,
म्हे आज सुणी है म्यानां में
तरवार रवैली अब सूती,
तो म्हांरो हिवड़ो कांपै है मूख्यां री मोड़ मरोड़ गई,
पीथळ नै राणा लिख भेजो आ बात कठे तक गिणां सही ?
पीथळ रा आखर पढ़ता ही
राणा री आंख्यां लाल हुई,
धिक्कार मनै हूं कायर हूं
नाहर री एक दकाल हुई,
हूं भूख मरूं हूं प्यास मरूं
मेवाड़ घरा आजाद रवै
हूं घोर उजाड़ा में भटकूं
पण मन में मां री याद रवै,
हूं रजपूतण रो जायो हूं रजपूती करज चुकाऊंला,
ओ सीस पड़े पण पाघ नहीं दिल्ली रो मान झुकाऊंला,
पीथळ के खिमता बादळ री
जो रोकै सूर उगाळी नै,
सिंघां री हाथळ सह लेवै
बा कूख मिली कद स्याळी नै ?
धरती रो पाणी पिवै इसी
चातग री चूच बणी कोनी,
कूकर री जूणां जिवै इसी
हाथी री बात सुणी कोनी,
आं हाथां में तरवार थकां
कुण रांड कवै है रजपूती ?
म्यानां रै बदळै बैरयां री
छात्यां में रैवै ली सूती,
मेवाड़ धधकतो अंगारो आंध्यां में चमचम चमकैलो,
कड़खैरी उठती तानां पर पग पग पर खांडौ खड़कैलो,
राखो थे मूंछ्यां ऐंठ्योड़ी
लोही री नदी बहा दयूंला,
हूं अथक लडूंला अकबर स्यूं
उजड्यो मेवाड़ बसा यूला,
जद राणा रो संदेश गयो पीथळ री छाती दूणी ही,
हिंदवाणो सूरज चमकै हो अकबर री दुनियां सूनी ही ।