सरस्वती-पूजन वसंत पंचमी पर कविता

बसंत पंचमी के दिन सरस्वती पूजा का विशेष महत्व है। धार्मिक मतान्तरों के अनुसार माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि पर ज्ञान, विद्या, कला, साहित्य और संगीत की देवी मां सरस्वती का जन्म हुआ था। बसंत पंचमी के दिन से ही बसंत ऋतु की शुरुआत हो जाती है। इसके बाद से सर्दियाँ धीरे-धीरे-धीरे-धीरे ख़त्म होती जा रही हैं।

sharde maa
सरस्वती माँ

हंसवाहिनी मातु

● कृष्णकांत ‘मधुर’

हंसवाहिनी मातु शारदे, वीणावादिनी ऐसा वर दे |

संस्कृति के उत्तम प्रकाश से, ज्योतिर्मय मम भारत कर दे ॥

नैन दीप हैं, भाव सुमन हैं,

शब्दों के अक्षत चंदन हैं।

वंदन है, शत बार नमन है, पावन निर्मल स्वर निर्झर दे।

वेद करे मन में उजियारा,

सरसे सुखद धर्म की धारा ।

ध्यान बने पुण्यमय परम ज्ञान का सुखसागर दे।

निर्बलता अज्ञान मिटा दें,

जीवनचर्या सुखद बना दे।

सुमन खिला दें, दीप जला दे, नव सुरभित आलोक प्रखर दे ।

मधुर करे आराधन तेरा,

मन उपवन में करो बसेरा ।

जगे सवेरा, भगे अँधेरा, मंगलमय भावों को स्वर दे।

माँ मुझे आशीष दो

● श्रीकृष्ण मित्र

माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।

शब्द में, स्वर में समर्पित कल्पना को गा सकूँ ।

मौन को मुखरित करूँ मैं अर्चनामय गीत में,

कह सकूँ पीड़ा मनुज की स्नेहमय संगीत में।

दो मुझे वह तूलिका, चित्रित करूँ साकार को,

दो मुझे वह लेखनी, मैं लिख सकूँ श्रृंगार को ।

हर व्यथा में भी सलोनी सांत्वना को गा सकूँ ।

माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।

राष्ट्र के उस देवता की कर सकूँ आराधना,

कर सकूँ समवेत स्वर में शारदे माँ वंदना ।

क्रांति के हर शब्द से स्वर शंख का गुंजित करूँ,

ओज को अभिव्यक्ति दे संक्रांति को गुंजित करूँ ।

सप्त स्वर में शारदे झंकार को बहला सकूँ ।

माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ।।

मातृभू का करूँ अर्चन और अभिनंदन करूँ,

राष्ट्र के उस देवता का काव्यमय वंदन करूँ ।

गीत की हर पंक्ति में गाऊँ समर्पण की कथा,

और मुखरित कर सकूँ संपूर्ण अर्पण की व्यथा ।

जो थका-हारा मिलें, उसका हृदय बहला सकूँ,

माँ मुझे आशीष दो, मैं वेदना को गा सकूँ ॥

वीरों का कैसा हो वसंत

● सुभद्राकुमारी चौहान

वीरों का कैसा हो वसंत ?

आ रही हिमालय से पुकार

है उदधि गरजता बार-बार

प्राची- पश्चिम, भू नभ अपार

सब पूछ रहे हैं दिग्-दिगंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

फूली सरसों ने दिया रंग

मधु लेकर आ पहुँचा अनंग

वसु-वसुधा पुलकित अंग-अंग

हैं वीर वेश में किंतु कंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

गलबाँही हो, या हो कृपाण

चल-चितवन हो या धनुष-बाण

हो रस – विलास या दलित त्राण

अब यही समस्या है दुरंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

भर रही कोकिला इधर तान

मारू बाजे पर उधर गान

है रंग और रण का विधान

मिलने आए हैं आदि अंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

कह दे अतीत अब मौन त्याग

लंके ! तुझमें क्यों लगी आग

ऐ कुरुक्षेत्र ! अब जाग, जाग

बतला अपने अनुभव अनंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

हल्दीघाटी के शिलाखंड

ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड

राणा-ताना का कर घमंड

दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत

वीरों का कैसा हो वसंत ?

तब समझँगा आया वसंत

० रामप्रसाद ‘बिस्मिल’


जब सजी वसंती बाने में,

बहनें जौहर गाती होंगी,

कातिल की तोपें उधर,

इधर नवयुवकों की छाती होंगी,

तब समझँगा आया वसंत।

जब पतझड़ पत्तों से विनष्ट,

बलिदानों की टोली होगी,

जब नव विकसित कोंपल-कर में,

कुंकुम होगा, रोली होगी,

तब समझँगा आया वसंत ।

युग-युग से पीड़ित मानवता,

सुख की साँसें भरती होगी,

जब अपने होंगे वन – उपवन,

जब अपनी यह धरती होगी,

तब समझँगा आया वसंत ।

जब विश्व-प्रेम-मतवालों के,

खूँ से पथ पर लाली होगी,

जब रक्त-बिंदुओं से सिंचित,

उपवन में हरियाली होगी,

तब समझँगा आया वसंत।

जब सब बंधन कट जाएँगे,

परवशता की होली होगी,

अनुराग अबीर बिखेर रही,

माँ-बहनों की टोली होगी,

तब समझँगा आया वसंत ।

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